शनिवार, 11 जनवरी 2014

मुहम्मद सल्ल. की जीवन व्यवस्था और आर्थिक जीवन Way of Life (Deen) of Hazrat Muhammad and Economic System

मुहम्मद सल्ल. की जीवन व्यवस्था और आर्थिक जीवन
धन जीवन की रीढ़ की हड्डी और उसका आधार है जिसके द्वारा हज़रत मुहम्मद सल्ल. की शरीअत का उद्देश्य एक संतुलित समाज की स्थापना है जिसमें सामाजिक न्याय का बोल बाला हो जो अपने सभी सदस्यों के लिये आदरणीय जीवन का प्रबंध करता है, ऐसे भ्रष्टाचार और शोषण मुक्त समाज की स्थापना जिसमें धन का आना शुभ और जाना अशुभ न माना जाता हो जहाॅ येनकेन प्रकारेण धन इकट्ठा करना ही जीवन का मुख्य ध्येय न हो।
इस्लाम की दृष्टि में धन उन ज़रूरतों में से एक ज़रूरत है जिस से व्यक्ति या समूह बेनियाज़ नहीं हो सकते तो अल्लाह तआला ने उसके कमाने और खर्च करने के तरीक़ों से संबंधित कुछ नियम बनाये हैं, साथ ही साथ उसमें अढ़ाई प्रतिशत / चालीस रूपये में एक रूपया (2.5 प्रतिशत) ज़कात अनिवार्य किया है जो धन्वानों के मूलधनों पर एक साल बीत जाने के बाद लिया जायेगा और निर्धनों और गरीबों में बांट दिया जायेगा, यह
निर्धनों के अधिकारों में से एक अधिकार है जिसे रोक लेना हराम (वर्जित) है।
दूसरों के धनों और सम्पत्तियों से छेड-छाड़ करने को वर्जित ठहराने के बारे में शरई हुक्म मौजूद हैं, अल्लाह तआला का फरमान है: ‘‘एक दूसरे का माल अवैध रूप से न खाया करो।’’ (सूरतुल बक़रा:188)

इस्लाम ने अच्छा जीवन मुहैया कराने के लिये, निम्नलिखित उपाय किये हैंः

1- व्याज को हराम करार दिया है, अल्लाह तआला का फरमान है: ‘‘ ऐ ईमान वालो! अल्लाह तआला से डरो और जो व्याज बाक़ी रह गया है वह छोड़ दो यदि तुम सच्चे ईमान वाले हो, और और ऐसा नहीं करते तो अल्लाह तआला से और उसके रसूल से लड़ने के लिये तैयार हो जाओ, हाँ यदि तौबा कर लो तो तुम्हारा मूल धन तुम्हारा ही है, न तुम ज़ुल्म करो और न तुम पर ज़ुल्म किया जायेगा।’’ (सूरतुल बक़रा:278)

2- इस्लाम ने क़जऱ् (ऋण) देने पर उभारा है और उसकी प्रेरणा दी है ताकि सूद और उसके रास्तों को बंद किया जा सके, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः ‘‘जिसने किसी मुसलमान को एक दिर्हम दो बार कजऱ् दिया तो उसके लिये उन दोनों (कजऱ्ो) को एक बार सद्क़ा करने के बराबर अज्र व सवाब है।’’ (मुसनद 8/443 हदीस नं-ः 5030)

और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है: ‘‘जिसने किसी मुसलमान की परेशानी (संकट) को दूर कर दिया तो उसके बदले अल्लाह तआला उसकी क़यामत के दिन की परेशानियों में से एक परेशानी को दूर कर देगा।’’ (सही मुस्लिम हदीस नं-ः58)

(नोटः-कर्ज़ हमेशा किसी मानक वस्तु को आधार बनाकर देना चाहिये जैसे ज़कात देते वक्त सोने चाॅदी के मानक से जोड़ा गया है। क्योंकी नोट या करेंसी की खुद की कोई कीमत नही होती हमारा दीनी फरीज़ा है कि जितना कर्ज़ हमने लिया है उतना ही हम वापस करें, नोट केा आधार मानकर लिये गये कर्ज़ में हम साल गुज़रने पर कम कीमत वापस करते हैं)

    इस्लाम ने तंगी वाले को छूट और मोहलत देने, और उसे तंग न करने का संदेश दिया है और यह हुक्म मुस्तहब (ऐच्छिक) है, अनिवार्य नहीं है - यह उस व्यक्ति के लिय है जो ऋण वापस करने का पूरा प्रयास कर रहा हो लेकिन टाल-मटोल और खिलवाड़ करने वालांे के लिये यह नहीं है- अल्लाह तआला का फरमान है: ‘‘और यदि तंगी वाला हो तो उसे आसानी तक छूट देनी चाहिये।’’ (सूरतुल बक़रा:280)

और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘जिसने किसी तंगी वाले को छूट और मोहलत दिया उसके लिए हर दिन के बदले सद्क़ा होगा, और जिसने उसे क़जऱ् चुकाने की मुद्दत आ जाने के बाद मोहलत दिया उसके लिए उसी के समान हर दिन सद्क़ा है।’’ (सुनन इब्ने माजा  हदीस नं-ः2418)

   कर्ज़दार पर कर्ज़ चुकाना कठिन हो रहा हो तो इस्लाम ने कर्ज़ देने वाले को कर्ज़ माफ कर देने पर उभारा है और इसकी प्रतिष्ठा को स्पष्ट किया है, अल्लाह तआला ने फरमाया: ‘‘और दान करो तो तुम्हारे लिये बहुत ही अच्छा है।’’ (सूरतुल बक़रा:280)

और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि ‘‘जो इस बात से प्रसन्न हो कि अल्लाह तआला उसे आखिरत (परलोक) की कठिनाईयों से छुटकारा दे दे तो उसे चाहिए कि वह तंगी वाले को छूट व मोहलत दे या उस से ऋण (कजऱ्) को समाप्त कर दे।’’ (सुनन बैहक़ी 5/356 हदीस नं-ः10756)

3- इस्लाम ने लालच और ज़खीरा अंदोज़ी को हराम ठहराया है चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, क्योंकि ज़खीरा करने वाला (लोगों के इस्तेमाल की वस्तुओं को इकट्ठा करने वाला) लोगों  के खानपान और ज़रूरत के सामान को रोक लेता है यहाँ तक कि वह सामान मंडी में कम हो जाता है, फिर वह मनपसंद भाव लेकर बेचता है, इस से समाज के धनवान एंव निर्धन सब को नुक़सान पहुँचता है, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘जिसने माल को ज़खीरा किया वह पापी है।’’ (सही मुस्लिम 3/1227 हदीस नं-ः1605)

इमाम अबू हनीफा के शिष्य अबू यूसुफ कहते हैं: ‘‘हर वह वस्तु जिसका रोकना लोगों के लिए हानिकारक हो वह अहितकार (ज़खीरा अन्दोज़ी) है, यदि वह सोना चाँदी (आजकल नोट और सिक्के इसमें शामिल हैं) ही क्यों न हो, और जिसने ज़खीरा किया उसने अपनी मिलकियत में गलत हक़ का इस्तेमाल किया। इसलिए कि ज़खीरा करने से रोकने का उद्देश्य लागों से हानि को रोकना है और लागों की विभिन्न ज़रूरतें होती हैं और ज़खीरा अन्दोज़ी से लोग कष्ट और तंगी में पड़ जाते हैं।

और हाकिम (सरकार/खलीफा) का यह अधिकार है कि, सामान इकट्ठा करके रखने वाले को ऐसे मुनासिब फायदे में बेचने पर मजबूर करे जिस में न बेचने वाले का हानि हो न ही खरीदने वाले केा। यदि सामान इकट्ठा करके रखने वाला इन्कार कर देता है तो हाकिम (सरकार/खलीफा) को यह अधिकार है कि वह अपना शासन लागू कर के उसे मुनासिब दाम में बेचे ताकि उसके इस कृत्य के सबब सामान इकट्ठा करके रखने और लोगों की आवश्यकताओं से लाभ कमाने की इच्छा रखने वाले का रास्त बंद हो जाये।

4- पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘वह मांस और खून जिस का पोषण अवैध धन से हुआ है वह स्वर्ग में नहीं जा सकता, वह नरक का अधिक हक़दार है।’’

5- इस्लाम ने धन का खज़ाना बनाकर रखने और उसमें अल्लाह के उन हुक़ूक़ को जिन से मनुष्य और समाज का भला और लाभ होता है, न निकालने को हराम क़रार दिया है इसलिए कि माल के इस्तेमाल का उचित ढंग यह है कि सभी लोगों के हाथों में पहुँचता रहे, ताकि इस से आर्थिक व्यवस्था चलती रहे, जिस से समाज के सभी लोग लाभान्वित होते है विशेषकर जब समाज को ज़रूरत हो, अल्लाह तआला का फरमान है:  ‘‘और जो लोग सोने चाँदी (नोट और सिक्के) का खज़ाना रखते हैं और उसे अल्लाह के मार्ग में खर्च नहीं करते उन्हें कष्टदायक सज़ा की सूचना पहुँचा दीजिए।’’ (सूरः त्तौबा:34)

इस्लाम ने जिस तरह निजी मिलकियत का सम्मान किया है उसी तरह उसमें हुक़ूक़ और वाजिबात (अधिकार और कर्तव्य) निर्धारित किए हैं, इन वाजिबात में से कुछ ऐसे हैं जो स्वयं मालिक ही के लिए हैं जैसे अपने ऊपर खर्च करना और रिश्तेदारों में से जिनके खर्च का वह जि़म्मेदार है, उन पर खर्च करना ताकि वह दूसरों के ज़रूरतमंद न रहें। उन में से कुछ समाज के खास लोगों के लिए अनिवार्य है जैसे ज़कात, दान, खैरात इत्यादि। तथा उनमें से कुछ समाज के लिए अनिवार्य है, जैसे विद्यालय, स्वास्थ केन्द्र, कॅुये, अनाथालय, मुसाफिरखाना और मस्जिदें बनाने और हर वह चीज़ जिससे ज़रूरत के वक़्त समाज को लाभ पहुँचे, उसमें माल खर्च करना। और इस कार्य के द्वारा इस्लाम धन को समाज के कुछ विशिष्ट लोगों के हाथों में सिमटने से रोकना चाहता है।

6- नाप और तौल में डंडी मारने को इस्लाम ने हराम ठहराया है इसलिये कि यह एक प्रकार की चोरी, छीना झपटी, खियानत और धोखा-धड़ी है, अल्लाह तआला फरमाता है: ‘‘बड़ी खराबी है नाप तौल में कमी करने वालों की, कि जब लोगों से नाप कर लेते है ंतो पूरा पूरा लेते हैं और जब उन्हें नाप कर या तौल कर देते है ंतो कम देते हैं।’’ (सूरतुल मुतफ्फिेफीन:1-3)

7- इस्लाम ने मनुष्यों के सामान्य लाभ और मुनाफे की चीज़ों पर क़ब्ज़ा जमाने और लोगों को उस से लाभ उठाने से रोकने को हराम क़रार दिया है, जैसे आग, पानी और चारागाह जो किसी व्यक्ति की सम्पत्ति न हो, जैसा कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है: ‘‘तीन प्रकार के व्यक्ति ऐसे हैं कि परलोक के दिन अल्लाह उनसे बात करेगा न ही उनकी तरफ देखेगा: एक व्यक्ति वह है जिसने किसी समाग्री के बारे में क़सम खायी कि जितने में वह दे रहा उस से अधिक देकर लिया है हालांकि वह झूठा है, एक व्यक्ति वह है जिसने अस्र के बाद अपने मुसलमान भाई का माल लेने के लिए झूठी क़सम खाई और एक व्यक्ति वह है जिस ने ज़रूरत से अधिक (फालतू) पानी को रोक लिया, अल्लाह तआला कहेगा: आज मैं तुझ से अपना फज़्ल (अनुकम्पा) रोक लूँगा जिस तरह तुम ने उस अतिरिक्त पानी को रोक दिया था जो तुम्हारे हाथों की कमाई नहीं थी।’’ (सही बुखारी हदीस नं-ः2240)
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि ‘‘मुसलमान तीन चीज़ों में आपस में साझीदार हैं: चारा, पानी और आग।’’ (मुस्नद अहमद हदीस नं-ः23132)

8- इस्लाम के अन्दर मीरास का क़ानून है, माल के मालिक से दूरी और क़रीबी के हिसाब से विरासत (तरका) को वारिसों के बीच बांटा जाता है -और इस विरासत के धन के बॅटवारे में किसी को अपनी व्यक्तिगत इच्छा और मनमानी चलाने का
अधिकार नहीं है- और इस क़ानून की अच्छाईयों में से यह है कि धन चाहे जितना ज़्यादा हो यह सब को छोटी-छोटी मिलकियतों में बांट देता है और इस धन को कुछ विशिष्ट लोगों के हाथों में सिमटने को असम्भव बना देता है, रसलू सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि ‘‘अल्लाह तआला ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया है इसलिये किसी वारिस के लिये वसीयत नहीं है।’’ (सुनन अबू दाऊद हदीस नं-ः2870)

9- वक़्फ का क़ानून: इस्लाम ने वक़्फ करने पर लोगों को उभारा और उसकी प्रेरणा दी है। वक़्फ दो प्रकार का है:
खास वक़्फ: आदमी अपने घर और परिवार वालों के लिए उन्हें भूख, गरीबी और भीख मांगने से बचाने के उद्देश्य से
धन वक़्फ करे, और इस वक़्फ के शुद्ध होने की शर्ताें में से एक शर्त यह है कि वक़्फ करने वाले के परिवार के खत्म हो जाने के बाद उसका लाभ पुण्य के कार्यों में लगाया जाएगा।
आम वक़्फ: आदमी पुण्य के कार्यों में अपना धन वक़्फ करे जिसका उद्देश्य उस वक़्फ या उसके लाभ को भलाई और नेकी के कामों पर खर्च करना हो, जैसे: अस्पताल, स्कूल, रास्ते, पुस्तकालय, मसजिद, और अनाथों, लावारिसों और कमज़ोरांे की देखभाल के केंद्र बनाना, इसी तरह हर वह काम जिसका समाज को लाभ पहुँचे। रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं: ‘‘जब इंसान मर जाता है तो उसके सारे नेकी के काम बंद हो जाते हैं सिवाय तीन चीज़ों के, सद्क़ा जारिया (बाक़ी रहने वाला दान ), लाभदायक ज्ञान और नेक लड़का जो माता पिता के लिए दुआ करे।’’ (सही मुस्लिम हदीस नं-ः1631)

10-  वसीयत का नियम: इस्लाम ने मुसलमान के लिए यह वैध क़रार दिया है कि वह अपने माल में से कुछ माल मरने के बाद पुण्य कार्य और भलाई के कामों में खर्च करने की वसीयत कर दे। लेकिन इस्लाम ने तिहाई माल से अधिक वसीयत करने की अनुमति नहीं दी है ताकि इस से वारिसों को हानि न पहुँचे। आमिर बिन सअद रजि़यल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैं मक्का में बीमार था, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मेरा हाल पता करने के लिए आये, मैं ने आप से कहा कि क्या मैं अपने सारे माल की वसीयत कर सकता हूँ? आप ने कहा नहीं, तो मैं ने कहा तो फिर आधे माल की? आप ने फरमाया नहीं, मैं ने कहा तो फिर एक तिहाई की? आप ने फरमाया: एक तिहाई की कर सकते हो और एक तिहाई भी अधिक है, तुम्हारा अपने वारिसों को मालदार छोड़ना इस बात से बेहतर है कि तुम उन्हें मोहताज छोड़ दो वो लोगों के सामने हाथ फैलाते फिरें, और तुम कितना भी खर्च कर डालो वह सद्क़ा है यहाँ तक कि अपनी बीवी के मुँह में जो लुक़मा डालते हो (वह भी सद्क़ा है) और शायद अल्लाह तुम्हारी बीमारी को उठा ले और कुछ लोग तुम से लाभ उठायें और दूसरे लोग नुक़सान।’’ (सही बुखारी 1/435 हदीस नं-ः1233)

11-  उन सभी चीज़ों को हराम क़रार दिया जो अल्लाह तआला के इस कथन: ‘‘ऐ ईमान वालो! तुम आपस में एक दूसरे का माल अवैध तरीक़े से न खाओ।’’ (सूरतुन्निसा:29) के अन्तरगत आती हैं। विभिन्न प्रकार की छीना झपटी से रोका है, इसलिए कि इसमें लोगों पर अत्याचार होता है और समाज में बिगाड़ पैदा होता है। रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है: ‘‘जिसने क़सम खा कर अपने मुसलमान भाई का हक़ छीन लिया तो अल्लाह तआला ने उसके लिए नरक अनिवार्य कर दिया है और उस पर स्वर्ग हराम कर दिया है।’’ एक आदमी ने कहा कि ऐ अल्लाह के पैग़म्बर! अगर छोटी ही चीज़ क्यों न हो? आप ने कहा कि: ‘‘चाहे पीलू की एक डाली ही क्यों न हो।’’ (सही मुस्लिम 1/122 हदीस नं-ः137)

और चोरी से रोका है, इसलिए कि यह लोगों के धनों पर अवैध क़ब्ज़ा है। धोखा और फरेब से रोका है, रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया ‘‘जिसने हम पर हथियार उठाया वह हम में से नहीं और जिस ने हमें धोखा दिया तो वह हम में से नहीं।’’ (सहीह मुस्लिम 1/99 हदीस नं-ः101 )
घूस लेने से रोका है, जैसा कि अल्लाह का फरमान है:‘‘एक दूसरे का माल अवैध तरीक़े से न खाओ, अैर न ही हाकिमों को घूस दे कर किसी का कुछ माल अत्याचारी से हथिया लो, हालांकि तुम जानते हो।’’ (सूरतुल बक़रा:188) तथा रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘फैसला (श्रनकहमउमदज)में घूस देने और लेने वाले दोनों पर अल्लाह की फटकार है।’’

‘राशी’ घूस देने वाला ‘‘मुर्तशी’ घूस लेने वाला और एक हदीस में ‘राईश’ का शब्द आया है जिसका अर्थ दलाल है। घूस देने वाले पर फटकार इस लिये है कि वह इस हानिकारक चीज़ को समाज में फैलाने में सहायता कर रहा है और और वह घूस न देता तो घूसखोर न पाया जाता, और घूस लेने वाले पर फटकार इस लिये है कि उस ने घूस देने वाले को अवैध रूप से उसका धन लेकर उसे हानि पहुँचाया है और उसने अमानत में खियानत की है, इसलिये कि वह कार्य जो उस पर बिना माल लिये उसे करना अनिवार्य था उसे पैसे के बदले में किया है, इसके साथ ही घूस देने वाले के मुखालिफ को भी हानि हो सकता है। दलाल ने घूस देने और लेने वाले दोनों से अवैध माल लिया है और इस बुराई के फैलाव का प्रोत्साहन किया है।

   इस्लाम ने मनुष्य के लिये अपने भाई के क्रय पर क्रय करने को हराम क़रार दिया है, हाँ और वह उसे अनुमति दे दे तो कोई बात नहीं, इसलिये कि इस से समाज में दुश्मनी पैदा होती है, रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि ‘‘आदमी अपने भाई के क्रय-विक्रय पर क्रय-विक्रय न करे और अपने भाई के विवाह के संदेश पर संदेश न भेजे, हाँ और उसका भाई अनुमति दे दे तो कोई बात नहीं।’’ (सही मुस्लिम)

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