रविवार, 12 जनवरी 2014

विश्व-उद्धारक Savior of Universe

विश्व-उद्धारक

  थोड़ी देर के लिए वास्तविक आँखें बन्द करके कल्पना की आँखें खोल लीजिए और एक हजार चार सौ वर्ष पीछे पलट कर संसार की स्थिति पर दृष्टि डालिए। यह कैसा संसार था ? मनुष्य-मनुष्य के बीच विचारों के आदान-प्रदान के साधन कितने कम थे। देशों और जातियों के बीच संबंध के साधन कितने सीमित थे। मनुष्य की जानकारी कितनी कम थी। उसके विचार कितने संकुचित थे। उस पर भ्रांति और पशुत्व का कितना प्रभाव था। अज्ञानता के अंधकार में ज्ञान का प्रकाश कितना मद्धिम था और इस अंधकार को धकेल-धकेल कर यह प्रकाश कितनी कठिनाइयों के साथ फैल रहा था।
  उस समय न तार था, न टेलीफोन था, न रेडियो था, न रेल, न हवाई जहाज, न प्रेस थे और न प्रकाशन-गृह थे। न स्कूल और कालेज थे, न पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं, न अधिकता से किताबें लिखी जाती थीं, न अधिकता से उनका प्रकाशन होता था। उस काल के एक विद्वान की जानकारी भी कुछ मामलों में आजकल के एक साधारण व्यक्ति की अपेक्षा कम थी। उस काल की ऊँची सोसाइटी का मनुष्य भी आधुनिक  काल के एक अशिक्षित मज़दूर की अपेक्षा कम सभ्य था। उस काल का एक उदार विचार-मनुष्य भी आजकल के अनुदार मनुष्य से भी अधिक अनुदार था। जो बातें आज सर्वसाधारण को ज्ञात हैं वे उस वक्त में वर्षों के परिश्रम, खोज और छानबीन के पश्चात् भी कठिनता से ज्ञात हो सकती थीं। जो जानकारी आज प्रकाश की तरह वातावरण में फैली हुई है और बच्चे को होश संभालते ही प्राप्त हो जाती है, उसके लिए उस समय सैकड़ों मील की यात्रा की जाती थी और पूरी उम्र उसकी खोज में बीत जाती थी। जिन बातों को आज भी भ्रान्तिमूलक समझा जाता है वे उस काल की सच्चाइयाँ थीं। जिन कार्यों को आज असभ्य और बर्बरतापूर्ण कहा जाता है वे उस काल के सामान्य कार्य थे। जिन रीतियों से आज मनुष्य का हृदय घृणा करता है, वे उस काल के आचरण में न केवल उचित समझी जाती थीं बल्कि कोई व्यक्ति यह सोच भी न सकता था कि उनके विरुद्ध भी कोई प्रणाली हो सकती है। मनुष्य की, आश्चर्यपूर्ण और तुरन्त लाभ हानि देने वाली वस्तुओं की पूजा-भावना, और पारिवारिक परमपरायें इतनी बड़ी हुई थी कि वह किसी वस्तु में तब तक कोई सच्चाई, कोई महानता और कोई पवित्रता स्वीकार ही नहीं कर सकता था जब तक वह तर्क से ऊपर न हो, स्वभाव के विरुद्ध न हो, असाधारण न हो और चमत्कारिक न हो, यहाँ तक कि मनुष्य अपने आपको इतना हीन, कमतर और तुच्छ समझता था कि किसी मनुष्य का ईश्वर (अल्लाह) तक पहुँचा हुआ होना और ईश्वर (अल्लाह) तक पहुँचे हुए किसी व्यक्ति का मनुष्य होना उसकी कल्पना की पहुँच से बहुत दूर था। उस अंधकारमय युग में धरती का एक कोना ऐसा था जहाँ अंधकार का प्रभुत्व और भी बढ़ा हुआ था। जो देश उस काल की सभ्यता की कसौटी के अनुसार सभ्य थे, उनके बीच अरब का देश सबसे अलग-थलग पड़ा हुआ था। उसके इर्द-गिर्द ईरान, मिस्र और रोम देशों में विद्या, कला, सभ्यता और संस्कृति का कुछ प्रकाश पाया जाता था, किन्तु रेत के बड़े -बड़े समुद्रों ने अरब को उनसे अलग कर रखा था। अरब सौदागर ऊँटों पर महीनों का सफर करके उन देशों में व्यापार के लिए जाते थे और केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान अथवा विनिमय करके लौट आते थे, विद्या और संस्कृति का प्रकाश उनके साथ न आता था।

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