मंगलवार, 14 जनवरी 2014

यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति........: Hazrat Mohammad (S) Prophet of Mankind

यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति........
      20 अप्रैल 571 ईस्वी. हजरत मोहम्मद (सल्ल.)की पैदाईश का दिन। अपने पिता अब्दुल्लाह के इस दुनिया से कूच कर जाने के बाद जन्मे इस नन्हे से बालक के बारे में किसने कल्पना की थी कि यह विलासिता के शीर्ष पर मंडराती, शराब-ओ शबाब में खोई, बर्बरता में अग्रणी, पत्थरों के आगे सर झुकाने वाली और भोग-विलास को अपना धर्म समझने वाली कबीलाई सभ्यता का भविष्य बदलने वाला देवदूत होगा।
      हजरत मोहम्मद (सल्ल.) की पैदाईश, अरब की सरजमी पर उस समय की घटना है जब इंसानियत कराह रही थी। बाप अपनी बच्ची को  जिंदा दफना देते थे।#  औरत नुमाइश, भोग एवं विलास की वस्तु थी। अनावश्यक तौर पर बहाने तलाष कर  कबीले एक-दूसरे से भयानक जंगे कर लिया करते थे। समूचा परिवेष बस लहू का प्यासा था।
      इंसानियत का असली मसला यह था कि पूरी जिंदगी की चूल अपने स्थान से हट गई थी। इंसान, इंसान नहीं रहा था। इंसानियत का मुकद्दमा अपने अंतिम छोर पर लटका, ईश्वर की अदालत में पेश था। इंसानियत स्वयं के खिलाफ ही गवाही दे चुकी थी। ऐसे समय मोहम्मद की पैदाइश ‘‘यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति........ ’’ का साकार रूप ही जान पड़ती है।
      न तो मसीह (ईसा) की तरह मोहम्मद को जन्म से ही अपने नबी होने का अंदाजा था न ही वे मूसा की तरह बेशुमार चमत्कारों के धनी थे। वे जागीर या सल्तनत देकर भी जमीं पर भेजे नहीं गए थे, फिर भी लोगो में मकबूल थे। लोग प्रेम से इन्हें सादिक (सच्चा) या अमीन (अमानतदार) कह कर बुलाते थे।
      निर्जन रेगिस्तान के प्रतिकूल एवं अभावग्रस्त जीवन में भी इनका चेहरा एक अपूर्व तेज से दमकता रहता था। आँखों में बाँध लेने वाली कशिश थी। वह रिश्तों का सम्मान करते, लोगों का बोझ हल्का करते, उनकी जरूरतें पूरी करते, आतिथ्य सत्कार करते। अच्छे कामों में लोगों की मदद करते एवं मामूली एवं जरूरत भर के खाने पर संतोष करते थे। सही मायनों में आप उदारता एवं पवित्रता के प्रतीक थे।
      मोहम्मद (सल्ल.) को गपबाजों और फालतु समय बिताने वालों का साथ बिलकुल नहीं भाता था। अपने खाली वक्त में वह गारे-हिरा में जाकर अल्लाह की बनाई हुयी इस दुनिया के मकसद और मानवीय समस्याओं के वास्तिवक कारण और उसके हल के चिंतन में लीन हो जाते थे। और बहुत सालों बाद एक दिन जिब्रील आये और उन्होने कहा-
पढ़ो ऐ मोहम्मद!
अपने रब के नाम से
जिसने इंसान को खून की नाजुक बूँद से बनाया
जिसने इंसान को वह सिखलाया जो वह नहीं जानता था...
      यह वही फरिश्ता था जिसने ईश्वर का सन्देश ला कर, ईसा, और इससे पहले मूसा समेत तमाम नबियों तथा ईषदूतों को सुनाया, मानव जाति के लिए नए व साफ-सुथरे रास्ते मुहैय्या करवाए । बस अपने रब के कलाम को सुनकर, उसके पैगाम को सुनाते ही मोहम्मद (सल्ल.) अब पैगम्बर हो गए ।
  अब सारी इंसानियत को अपना रब का पैगाम पहुूॅचाने के लिये , इंसानियत को अंधविष्वासों ,रीतिरिवाजों , बाप दादा की रस्मों से पुरोहितों - मठाधीषों के चंगुल से  मुक्ति दिलाने और धर्म के नाम पर फैले अधर्म के व्यापार का नाष करने के  लिये  , इंसानियत को जहन्नम से निजात दिलाने के लिये व्याकुल हो गये ।...इस अजीम और बड़े मकसद को अंजाम देने के लिये उनके पास ना तो कोई दौलत थी और न सरमाया। ना सोने-चाँदी के खजाने थे न ही लाल व जवाहारात के ढेर। न तो सुन्दर बाग बगीचे थे, न ही शाही महल। लेकिन उस फिक्रो-फाका में भी उनको ज़ेहन का सुकून एवं आत्मा की शांति हासिल थी। उनकी गरीबी और तंगी को देख कर मक्का के कर्म विरोधी लोग अक्सर उनका मजाक उड़ाया करते थे, वे कहते थे- ये कैसा नबी है-  ..........जो रहता है टूटे हुए हुजरे (झोपड़े) में.........बैठता है खजूर की चटाई पर.....पहनता है फटी हुई चादर..........और दावा करता है सारे कायनात के नबी होने का......  यह वही नबी हैं, जिनके आने के पहले इंसानियत अंधी थी, अखलाक बहरा था, और इंसान का किरदार मैला हो गया था। इनके बाद इंसान, इंसान से मोहब्बत करने लग गया । जुल्म व सितम की जगह अदल व इंसाफ ने ले ली। तलवार के कब्जे पर रखे हाथ अब तालीमे अखलाक के लिए मैदान में निकल आए। एक मुख्तसर से अरसे में सदियों से छाई वहशत अब रहमत में बदले लगी......काँटे फूल बन गए,...मानवता मुस्कुराने लगी......खुश्बू अब फैल रही थी......  इंसाफ आ रहा था , रहमत छा रही थी, अब इंसानियत साधनों को मकसद नहीं बना रही ....अब मकसद के लिये साधनों  सुविधाओं को कुर्बान कर रहीे है...भेदभाव मिट रहे ..सब अल्लाह के बन्दे, न कोई बढ़ा न कोई छोटा - नबी काबा में जा रहे हैं  ‘‘ जा अल हक्को व ज़हकल बातिल...हक आ गया बातिल मिट गया, बातिल तो मिटने के लिये ही है’’ ... अब नस्ली श्रेश्टता (जातिगत श्रेश्टता) नहीं ..नबी फरमा रहे हैं.. तुम में श्रेश्ठ वह है जो ज्यादा ईषपरायण है ’’ किसी अरबी को किसी अजमी पर किसी गोरे को किसी काले पर कोई श्रेश्टता नहीं... सारे इंसान आदम की   औलाद है... और आदम मिट्टी से बने हैं।
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#आज भी मानव इतिहास के सब से सुसभ्य पढे लिखे सुसंसकृत लोग  वंष परम्परा चलाने के नाम पर अपनी बेटियों को अल्ट्रासाऊॅण्ड सेन्टरों में किस बेदर्दी से मार रहे हैं, और आज की आजाद औरतेंा का फिल्मों, स्वागत समारोहों, दहेज और संस्कृति के नाम पर होने वाला हश्र बयान करने लायक नहीं है,  

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