रविवार, 12 जनवरी 2014

विश्व-उद्धारक Savior of Universe -2

             उनके देश में न कोई स्कूल था और न पुस्तकालय। न लोगों में विद्या की चर्चा थी, न विद्या और कला से कोई अनुराग था। सारे देश में गिनती के कुछ व्यक्ति थे, जिन्हें कुछ लिखना-पढ़ना आता था। लेकिनन इतना नहीं कि वो उस काल की विद्या, कला और शिल्प के ज्ञाता होते। उनके पास एक उच्च कोटि की भाषा अवश्य थी, जिसमें ऊँचे विचारों के व्यक्त करने की असाधारण शक्ति थी। उनमें उच्च कोटि की साहित्यिक अभिरुचि भी विद्यमान थी, किन्तु उनके साहित्य का जो थोड़ा हिस्सा हम तक पहुँचा है उसको देखने से मालूम होता है कि उनकी जानकारी कितनी सीमित थी। साहित्य और कला में उनका दर्जा कितना सतही था, उन पर भ्रमयुक्त भावनाओं का कितना प्रभुत्व था? उनके विचारों और स्वभावों में कितनी अज्ञानता और पाशविकता थी, उनकी नैतिकता केवल कल्पनाएँ, रीतिरिवात, परमपरायें और आस्थायें थीं।

            वहाँ कोई सुव्यवस्थित राज न था। कोई विधान और नियम (Law and Order) न था। हर गोत्र, जाति, कबीला खुद में आज़ाद था और केवल ‘‘जंगल के नियम’’ का पालन किया जाता था, जिसका जिस पर जोर चलता उसे मार डालता और उसके धन पर अधिकार जमा लेता। यह बात एक अषिक्षित़ बद्दू की समझ से परे थी कि जो व्यक्ति उसके गोत्र का उसकी जाति का नहीं उसे वह क्यों न सताये और उसके धन, ज़मीन इत्यादि पर क्यों न अधिकार कर ले ?

    आचरण, नैतिकता और संस्कृति व सभ्यता की जो कुछ भी कल्पनाएँ उन लोगों में थीं वे अत्यंत तुच्छ, बेहद गलीज़ और भद्दी थीं। पवित्र और अपवित्र, उचित और अनुचित, शिष्ट और अशिष्ट की पहचान से वे लगभग अनभिज्ञ थे। उनका जीवन घृणित था। उनका आचरण बर्बरतापूर्ण था। व्यभिचार, ब्लात्कार, जुआ, शराब, चोरी, डाका, मुनाफाखोरी, ब्याजखोरी, हत्या और हिंसा उनके जीवन के साधारण कार्य थे। वे एक-दूसरे के सामने निःसंकोच नंगे हो जाते थे। उनकी स्त्रियाँ तक नंगी होकर अपने इष्ट देवताओं की परिक्रमा करती थीं। वे अपनी लड़कियों को अपने हाथ से जीवित धरती में गाड़ देते थे, केवल इस मूर्खतापूर्ण धारणा पर कि कोई उनका दामाद न बने। वे अपने बापों के मरने के बाद अपनी सौतेली माताओं से विवाह कर लेते थे। उन्हें भोजन, वस्त्र और सफाई के साधारण नियमों की भी जानकारी न थी।

                    धर्म के विषय में वे उन सारी मूर्खताओं और कुमार्गों के भागी थे, जिनमें उस काल का संसार लिप्त था। मूर्तिपूजा, प्रेतपूजा, नक्षत्रपूजा, अर्थात् एक ईश्वर (अल्लाह) की पूजा के सिवा उस समय संसार में जितनी पूजाएँ पाई जाती थीं, वे सब उनमें प्रचलित थीं। प्राचीन पैगम्बरों और उनकी शिक्षाओं के बारे में कोई वास्तविक ज्ञान उनके पास न था। वे इतना अवश्य जानते थे, कि इब्राहीम (अलैहि) और इस्माईल (अलैहि) उनके पैगम्बर हैं, मगर यह न जानते थे कि उन दोनों का जीवन व्यतीत करने का तरीका क्या था ? और वे किसकी पूजा करते थे। पहले की कौमोंकृ ‘आद’ और ‘समूद’ की कथाएँ भी उनमें प्रसिद्ध थीं, मगर उनकी जो कहानियाॅ अरब के इतिहासकारों ने लिखी हैं उनको पढ़े जाने पर, कहीं भी पैगम्बरों (हम इंसानों को ज़िन्दगी जीने का सही तरीका बताने वालों) की शिक्षाओं का चिन्ह न मिलेगा। अरबों को यहूदियों और ईसाइयों द्वारा बनी-इसराईल के पैगम्बरों की कथाएँ भी पहुँची थीं, मगर वे कहानियाँ जैसी कुछ थीं, इसका अनुमान करने के लिए एक दृष्टि उन कथाओं पर डाल लेना पर्याप्त है जो भाष्यकारों ने उनके स्रोतों से उद्धृत की हैं। यह पता चल जाएगा कि अरब और स्वयं बनी-इसराईल (ईसाई और यहूदी) जिन पैगम्बरों को जानते थे वे कैसे मनुष्य थे। और पैगम्बरों के संबंध में अरब और इसराईली लोग कितनी तुच्छ धारणाएँ रखते थे।

                               ऐसी परिस्थितियों में ऐसे काल और ऐसे देश में एक व्यक्ति जन्म लेता है। बचपन ही में माता-पिता और दादा का साया उसके सिर से उठ जाता है। इसलिए इस गई-गुजरी अवस्था में एक अरबी बच्चे को जो थोड़ी-बहुत गुण-शिक्षा मिल सकती थी वह भी उसे नहीं मिली। होश संभालता है तो बद्दू लड़कों के साथ बकरियाँ चराने लगता है। जवान होता है तो सौदागरी (ठनेपदमेे) में लग जाता है। उठना, बैठना, मिलना-जुलना, सब कुछ उन्हीं अरबों के साथ है जिनका हाल आपने ऊपर देख लिया। शिक्षा का नाम तक नहीं। पढ़ना-लिखना तक नहीं आता। किसी विद्वान की संगति उसे प्राप्त नहीं हुई क्योंकि विद्वानों का अस्तित्व उस समय सारे अरब में कहीं नहीं था।  अगर होते भी तो उनसे ऐसा ज्ञान प्राप्त होना संभव नहीं जो एक अनपढ़ व्यक्ति को एक देश का नहीं समस्त संसार का, और एक युग का नहीं बल्कि समस्त युगों का रहनुमा बना दे।  और ऐसा ज्ञान जो ज्ञान उस समय तक संसार को प्राप्त ही न थे, धर्म, नैतिकता, सभ्यता और नागरिकता की जो कल्पनाएँ और जो सिद्धांत उस समय संसार में कहीं थे ही नहीं, मानव-चरित्र के जो आदर्श कहीं पाए ही न जाते थे और उनकी प्राप्ति का कोई साधन ही नहीं हो सकता था।

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