सोमवार, 13 जनवरी 2014

Son Of God or Slave of Allah

       आइए, अब इस प्रश्न पर विचार कीजिए कि 14 सौ वर्ष पहले के उस अंधेरे संसार में अरब जैसे प्रकाशरहित देश के एक कोने में एक बकरियाँ चराने वाले और व्यापार करने वाले अनपढ़, अनाथ, मरुभूमिवासी के भीतर इतना ज्ञान, इतना प्रकाश, इतना बल, इतना चमत्कार, इतनी महान दीक्षा-प्राप्त शक्तियाँ उत्पन्न हो जाने का कौन-सा आधार था? आप कह सकते हैं कि यह सब उसके अपने दिलोदिमाग की पैदावार थी। अगर यह उसी के दिलोदिमाग की पैदावार थी तो उसको ख्ुादाई का दावा करना चाहिए था और अगर वह ऐसा दावा करता, तो वह दुनिया जिसने राजाओं को भगवान सिद्ध करने में हिचक न की, जिसने बुद्ध को आप ही आप पूज्य बना लिया, जिसने मसीह को अपनी प्रसन्नता से खुदा का बेटा मान लिया, जिसने आग और पानी और हवा तक को पूज डाला, वह ऐसे महान पैगम्बर को ईश्वर बना लेने से कभी इन्कार न करती। मगर देखिए वह स्वयं क्या कह रहा है? वह अपने कारनामों में से एक का क्रेडिट भी स्वयं नहीं लेता, कहता है कि मैं एक मनुष्य हूँ, मेरे पास कुछ भी अपना नहीं, सब कुछ ईश्वर (अल्लाह) का है और ईश्वर (अल्लाह) ही की ओर से है। यह ‘‘कलाम’’ (वाणी) जिसकी उपमा प्रस्तुत करने में सारी मानव-जाति असमर्थ है, मेरा कलाम नहीं है। मेरे मस्तिष्क की योग्यता का परिणाम नहीं है, शब्द-शब्द खुदा की ओर से मेरे पास आया है और इसकी प्रशंसा खुदा ही के लिए है। ये कारनामे जो मैंने कर दिखाए हैं, ये नियम जिनकी मैंने रचना की, ये सिद्धांत जो मैंने तुम्हें सिखाए इनमें कोई चीज़ भी मैंने स्वयं नहीं बनाई है। मैं कुछ भी अपनी योग्यता से प्रस्तुत करने की सामर्थ्य नहीं रखता। हर-हर चीज़ में खुदा के आदेश का मुहताज हूँ। उसकी ओर से जो संकेत होता है वही करता हूँ और वही कहता हूँ।

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