शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

Islam and Neighbour


इस्लाम में पडोसी के अधिकारः
लाला काशीराम चावला
इस्लाम में पडोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बडा बल दिया गया है। परन्तु इसका उद्देश्य यह नहीं है कि पडोसी की सहायता करने से पडोसी भी समय पर काम आये अपितु इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया है, इसे आवश्यक करार दिया गया है और यह कर्तव्य पडोसी ही तक सीमित नहीं है बल्कि किसी भी मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न करने की ताकीद की गई है। पवित्र कुरआन में लिखा है- ‘‘और लोगों से बेरूखी न कर।’’ (कुरआन, 31/18)
पडोसी के साथ अच्छे व्यवहार का विशेष रूप से आदेश है। न केवल निकटतम पडोसी के साथ, बल्कि दूर वाले पडोसी के साथ भी अच्छे व्यवहार की ताकीद आई है। ‘‘और अच्छा व्यवहार करते रहो- माता-पिता के साथ, सगे सम्बन्धियों के साथ, अबलाओं के साथ, दीन-दुखियों के साथ, निकटतम और दूर के पडोसियों के साथ भी।’’ (कुरआन, 4/36)
पडोसी के साथ अच्छे व्यवहार के कई कारण हैं-
एक विशेष बात यह है कि मनुष्य को हानि पहुंचने की आशंका भी उसी व्यक्ति से अधिक होती है जो निकट हो। इस लिये उसके सम्बन्ध को सुदृढ़ और अच्छा बनाना एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य है ताकि पडोसी सुख और प्रसन्नता का साधन हो, न कि दुख और कष्ट का कारण।
पडोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने के सम्बन्ध में जो ईश्वरीय आदेश अभी प्रस्तुत किया गया है उसके महत्व को पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल-) ने विभिन्न ढंग से बताया है और आपने स्वयं भी उस पर अमल किया है।
एक दिन आप अपने मित्रों (सहाबियों) के बीच विराजमान थे। उनसे फरमाया- ‘‘खुदा की कसम, वह मोमिन नहीं! खुदा की कसम, वह मोमिन नहीं! खुदा की कसम, वह मोमिन नहीं!’’ आपने तीन बार इतना बल देकर कहा तो मित्रों ने पूछा- ‘‘कौन ऐ अल्लाह के रसूल?’’ आपने फरमाया- ‘‘वह जिसका पडोसी उसकी शरारतों से सुरक्षित न हो।’’
एक और अवसर पर आपने फरमाया ‘‘जो खुदा पर और कयामत पर ईमान रखता है, उसको चाहिए कि अपने पडोसी की रक्षा करे।’’
एक और हदीस में है कि आपने फरमाया ‘‘जो ईश्वर और कयामत के दिन पर ईमान रखता हो वह अपने पडोसी को कष्ट न दे।’’
एक और अवसर पर आपने फरमाया ‘‘ईश्वर के निकट मित्रों में वह अच्छा है जो अपने मित्रों के लि, अच्छा हो और पडोसियों में वह अच्छा है, जो अपने पडोसियां के लिए अच्छा हो।’’
एक बार आपने अपनी सुपत्नी हजरत आइशा (रजि-) से फरमाया ‘‘जिबरील (अलै.) ने मुझे अपने पडोसी के महत्वपूर्ण अधिकारों की इतनी ताकीद की कि मैं समझा कि कहीं विरासत में वे उसे भागीदार न बना दें।’’
इसका साफ अर्थ यह है कि पडोसी के अधिकार अपने निकटतम सम्बन्धियों से कम नहीं।
एक बार आपने एक साथी हजरत अबू ज़र(रजि.) को नसीहत करते हुए कहा ‘‘अबू ज़र! जब शोरबा पकाओ तो पानी बढा दो और इसके द्वारा अपने पडोसियां की सहायता करते रहो।’’
चूंकि स्त्रियों से पडोस का सम्बन्ध अधिक होता है इस लिए आपने स्त्रियों को सम्बोधित करते हुये विशेष रूप से कहा
‘‘ऐ मुसलमानों की औरतों! तुम में से कोई पड़ोसिन अपनी पड़ोसिन के उपहार को तुच्छ न समझे, चाहे वह बकरी का खुर (छोटी चीज़) ही क्यों न हो।’’
रसूले करीम (सल्ल.) ने पड़ोसियों की खोज-खबर लेते रहते की बडी ताकीद की है और इस बात पर बहुत बल दिया है कि कोई मुसलमान अपने पडोसी के कष्ट और दुख से बेखबर न रहे। एक अवसर पर आपने फरमया ‘‘वह मोमिन नहीं जो खुद पेट भर खाकर सो, और उसकी बगल में उसका पडोसी भूखा रहे।’’
एक बार रसूले करीम (सल्ल-) ने फरमायारू
‘‘व्यभिचार (जि़ना) निषिद्व(हराम) है, ईश्वर और उसके दूतों ने इसे बहुत बुरा काम कहा है। किन्तु दस व्यभिचार से बढकर व्यभिचार यह है कि कोई अपने पडोसी की पत्नी से व्यभिचार करे। चोरी निषिद्व है, अल्लाह और पैगम्बर ने उसे वर्जित ठहराया है, किन्तु दस चेारी से चोरी करने से बढकर यह है कि कोई अपने पडोसी के घर से कुछ चुरा ले।’’
दो मुसलमान स्त्रियों में आपको बताया गया कि पहले स्त्री
धार्मिक नियमों का बहुत पालन करती है किन्तु अपने दुर्वचनों से पडोसियां की नाक में दम कि, रहती है। दूसरी स्त्री साधारण रूप से रोजा-नमाज अदा करती है किन्तु अपने पडोसियों से अच्छा व्यवहार करती है। हजरत रसूले करीम(सल्ल-) ने फरमाया ‘‘पहली स्त्री नरक में जायेगी और दूसरी स्वर्ग में।’’
रसूले करीम(सल्ल-) ने पडोसी के स्वत्व (हक) पर इतना बल दिया है कि शायद ही किसी और विषय पर दिया हो।
एक अवसर पर आपने फरमया
‘‘तुम में कोई मोमिन नहीं हो सकता जब तक अपने पडोसी के लिये भी वही पसन्द न करे जो अपने लिये पसन्द करता है।’’
अर्थात पडोसी से प्रेम न करे तो ईमान तक छिन जाने का खतरा रहता है, यहीं पर बात खत्म नहीं होती, एक और स्थान पर आपने इस बारे में जो कुछ फरमाया वह इससे भी जबरदस्त है। आपने फरमाया ‘‘जिसको यह प्रिय हो कि खुदा और उसका रसूल उससे प्रेम करे या जिसको खुदा और उसके रसूल के प्रेम का दावा हो तो उसको चाहिये कि वह अपने पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करे और उसका हक अदा करे।’’
अर्थात जो पडोसी से प्रेम नहीं करता, उसका खुदा और रसूल से पे्रम का दावा भी झूठा है और खुदा और रसूल के प्रेम की आशा रखना भी भ्रम है। इसी लिये आपने फरमाया है कि कयामत के दिन ईश्वर के न्यायालय में सबसे पहले दो वादी उपस्थित होंगे जो पडोसी होंगे। उनसे एक-दूसरे के सम्बन्ध में पूछा जायेगा।
मनुष्य के सद्व्यवहार एवं कुव्यवहार की सबसे बडी कसौटी यह है कि उसे वह व्यक्ति अच्छा कहे जो उसके बहुत करीब रहता हो। चुनांचे एक दिन आप (सल्ल.) के कुछ साथियों ने आपसे पूछा- ‘‘ऐ अल्लाह के रसूल! हम कैसे जानें कि हम अच्छा कर रहे हैं या बुरा!
आप (सल्ल-) ने फरमाया ‘‘जब अपने पडोसी से तुम अपने बारे में अच्छी बात सुनो तो समझ लो कि अच्छा कर रहे हो और जब बुरी बात सुनो तो समझो बुरा कर रहे हो’’।
पैगम्बरे इस्लाम ने इस विषय में हद तय कर दी है। यही नहीं कि पडोसी के विषय में ताकीद की है बल्कि यह भी कहा है कि अगर पडोसी दुव्र्यवहार करे, तो जवाब में तुम भी दुव्र्यवहार न करो और यदि आवश्यक ही हो तो पडोस छोडकर कहीं अन्य स्थान पर चले जाओ।
मेरे गैर-मुस्लिम भाई इस घटना को पढकर चकित रह जायेंगे और सोचेंगे कि क्या सचमुच एक मुसलमान को इस्लाम धर्म में इतनी सहनशीलता की ताकीद है और क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकता है। हां, निस्सन्देह इस्लाम धर्म और रसूल करीम (सल्ल-) ने ऐसी ही ताकीद फरमाई है और इस्लाम के सच्चे अनुयायी इसके अनुसार अमल करते रहे हैं, जैसा कि उपर की घटनाओं से प्रकट है। अब भी ऐसे पवित्र व्यक्ति इस्लाम के अनुयाइयों मौजूद हैं जो इन सब बातों पर सम्पूर्ण रूप से कार्यन्वित करते हैं, ये ऐसे लोग हैं जिन्हें सिर-आंखों पर बिठाया जाना चाहिए।
मेरे कुछ भाई इस भ्रम में रहते हैं कि पडोसी का अर्थ केवल मुसलमान पडोसी ही से है, गैर-मुस्लिम पडोसी से नहीं। उनके इस भ्रम को दूर करने के लिए एक ही घटना लिख देना पर्याप्त होगा।
एक दिन हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर(रजि.) ने एक बकरी जि़ब्ह की। उनके पडोस में एक यहूदी भी रहता था। उन्होंने अपने घरवालों से पूछा ‘‘क्या तुमने यहूदी पडोसी का हिस्सा इसमें से भेजा है, क्योंकि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) से मुझे इस सम्बन्ध में ताकीद पर ताकीद सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है कि हर एक पडोसी का हम पर हक है।
यही नहीं कि पडोसी के सम्बन्ध में पवित्र कुरआन के इस पवित्र आदेश का समर्थन हजरत मुहम्मद(सल्ल-) ने जबानी फरमाया हो, बल्कि आपके जीवन की घटनाएं भी इसका समर्थन करती हैं।
एक बार कुछ फल हजरत रसूले करीम (सल्ल-) के पास उपहार स्वरूप आया। आपने सर्वप्रथम उनमें से एक भाग अपने यहूदी पडोसी को भेजा और बाकी भाग अपने घर के लोगों को दिया।
मैं यह बात दावे से कह सकता हूं कि निसन्देह धर्म में परस्पर मेल-मिलाप की शिक्षा मौजूद है। परन्तु जितनी जबरदस्त ताकीद पडोसी के सम्बन्ध में इस्लाम धर्म में है, कम से कम मैंने किसी और धर्म में नहीं पाई।
निःसन्देह अन्य धर्मों में हर एक मनुष्य को अपने प्राण की तरह प्यार करना चाहिए, अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही पवित्र ईश्वर के दर्शन करना आदि लिखा है। किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पडोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने और उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्वक सहन करने के बारे में जो शिक्षा पैगम्बर इस्लाम ने खुले शब्दों में दी है वह कहीं और नहीं पाई जाती।
अपने पडोसी से दुव्र्यवहर की जितनी बुराई रसूले करीम (सल्ल) ने बयान फरमाई है और उसे जितना बडा पाप ठहराया है, किसी और धर्म में उसका उदाहरण नहीं मिलता। इस लिये सत्यता यही है कि पडोसी के अधिकारों को इस प्रकार स्वीकार करने से इस्लाम की यह शान बहुत बुलन्द नजर आती है। इस्लाम का दर्जा इस सम्बन्ध में बहुत ऊंचा है। यह शिक्षा इस्लाम धर्म के ताज में एक दमकते हुए मोती के समान है और इसके लि, इस्लाम की जितनी भी प्रशंसा की जा, कम है। ऐ मुस्लिम भाई! रसूले करीम(सल्ल.) के पवित्र जीवन का पवित्र आदर्श आपके लि, पथ-प्रदर्शक दीप के समान है। इस लिए आप लोगों को अन्य धर्मावलम्बियों के लिए एक नमूना बनकर दिखाना चाहिये।
साभारः पुस्तक ‘इस्लामः मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म’ ‘ऐ मुस्लिम भाई!’  लेखक श्री एल के आर चावला ने जो 150 से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं आप लुधियाना के डिप्टी कमिशनर के कार्यालय में सुपरिटेंडेंट थे,

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