शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

Hadees Definition in Hindi


हदीस
हदीस का शाब्दिक अर्थ है बात, वाणी, बातचीत, गुफ्तगू, खबर, ।
पारिभाषिक अर्थ - इस्लामी परिभाषा में ‘हदीस’, पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल) के कथनों, कर्मों, कार्यों को कहते हैं। अर्थात् 40 वर्ष की उम्र में ईश्वर की ओर से सन्देष्टा, दूत (नबी, रसूल, पैगम्बर) नियुक्त किए जाने के समय से, देहावसान तक, आप (सल्ल) ने जितनी बातें कीं, जितनी बातें दूसरों को बताईं, जो काम किए उन्के संग्रह को हदीस कहा जाता है।
इस्लाम के मूल (ईश्वरीय) ग्रंथ कुरआन में अधिकतर विषयों पर जो रहनुमाई, आदेश-निर्देश, सिद्धांत, नियम, कानून, शिक्षाएँ, पिछली कौमों के वृत्तांत, रसूलों के आह्नान और सृष्टि व समाज से संबंधित बातों तथा एकेश्वरत्व के तर्क, अनेकेश्वरत्व के खंडन और परलोक-जीवन आदि की चर्चा हुई है वह संक्षेप में है। इन सब की विस्तृत व्याख्या का दायित्व ईश्वर ने पैगम्बर (सल्ल) पर रखा।
हदीस के निम्नलिखित छः विश्वसनीय संग्रह हैं जिनमें 29,578 हदीसें संग्रहित हैं 1. सही बुखारी
संग्रहकर्ता अबू अब्दुल्लाह मुहम्मद-बिन-इस्माईल बुखारी, हदीसों की संख्या 7225
2. सही मुस्लिम
संग्रहकर्ता अबुल-हुसैन मुस्लिम-बिन-अल-हज्जाज, हदीसों की संख्या 4000
3. सुनन तिर्मिजी
संग्रहकर्ता अबू-ईसा मुहम्मद-बिन-ईसा तिर्मिजी, हदीसों की संख्या  3891
4. सुनन अबू-दाऊद
संग्रहकर्ता अबू-दाऊद सुलैमान-बिन-अशअजस सजिस्तानी, हदीसे 4800
5. सुनन इब्ने माजह
संग्रहकर्ता मुहम्मद-बिन-यजीद-बिन-माजह, हदीसों की संख्या 4000
6. सुनन नसाई
संग्रहकर्ता अबू-अब्दुर्रहमान-बिन-शुऐब खुरासानी, हदीसों की संख्या 5662
उपरोक्त संग्रहों से संकलित अन्य प्रमुख उपसंग्रह
1. मिश्कात संग्रहकर्ता मुहम्मद-बिन-अब्दुल्लाह अल-खतीब तबरेजी, हदीसकृ 1894
2. रियाज-उस-सालिहीन संग्रहकर्ता अबू-ज़करीया-बिन-शरफुद्दीन नबवी, हदीसें 6294
इस्लामी शरीअत (धर्मशास्त्र) ‘कुरआन’ और ‘हदीस’ पर आधारित है। कुछ आधारभूत नियम कुरआन की आयतों से बने हैं। जिन नियमों की व्याख्या की आवश्यकता हुई, वह व्याख्या हदीस से ली गई है। बदलते हुए ज़मानों और नई-नई परिस्थितियों में जो नए-नए इशूज़ नई-नई समस्याएं सामने आती है उनसे संबंधित, शरीअत के कानून सिर्फ कुरआन और हदीस के अनुसार ही बनाए जाते हैं। यही कारण है कि किसी इन्सान को, चाहे वह मुसलमान ही हो और सारे मुसलमान मिल जाएँ, किसी को भी कुरआन और हदीस से निस्पृह व स्वच्छंद होकर शरीअत का कोई कानून बनाने का अधिकार प्राप्त नहीं है। कानून में संशोधन-परिवर्तन, जो कुरआन, हदीस की परिधि से बाहर जाकर किया जाए, अवैध और अमान्य होता है।

Islam : Way of Life


राजेन्द्र नारायण लाल अपनी पुस्तक ‘इस्लाम एक स्वयं सिद्ध ईश्वरीय
जीवन व्यवस्था‘ में अपने लेख ‘इस्लाम की विशेषताऐं’ में लिखते हैं-
1. इस्लाम ने मदिरा को हर प्रकार के पापों की जननी कहा है। अतः इस्लाम में केवल नैतिकता के आधार पर मदिरापान निषेध नहीं है अपितु घोर दंडनीय अपराध भी है। अर्थात कोड़े की सजा। इस्लाम में सिद्वांततः ताड़ी, भांग, गांजा आदि सभी मादक वस्तुएँ निषिद्ध है।
2. जकात अर्थात अनिवार्य दान । यह श्रेय केवल इस्लाम को प्राप्त है कि उसके पाँच आधारभूत कर्तव्योें-नमाज, रोजा, हज (काबा की तीर्थ यात्रा), में एक मुख्य कर्तव्य ज़कात भी है। इस दान को प्राप्त करने के पात्रों में निर्धन भी हैं और ऐसे कर्जदार भी हैं ‘जो कर्ज़ अदा करने में असमर्थ हों या इतना धन न रखते हों कि कोई कारोबार कर सकें। नियमित रूप से धनवानों के धन में इस्लाम ने मूलतः धनहीनों का अधिकार है उनके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे जकात लेने के वास्ते भिक्षुक बनकर धनवानों के पास जाएँ। यह शासन का कर्तव्य है कि वह धनवानों से ज़कात वसूल करे और उसके अधिकारियों को दे(जहाॅ शाषन न हो वहाॅ ज़कात कमेटी ये कार्य करे) धनहीनों का ऐसा आदर किसी धर्म में नहीं है।
3. इस्लाम में हर प्रकार का जुआ निषिद्ध है
4. सूद (ब्याज) एक ऐसा व्यवहार है जो धनवानों को और धनवान तथा
धनहीनों को और धनहीन बना देता है। समाज को इस पतन से सुरक्षित रखने के लिए किसी धर्म ने सूद पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई है। इस्लाम ही ऐसा धर्म है जिसने सूद को अति वर्जित ठहराया है। सूद को निषिद्ध घोषित करते हुए कुरआन में बाकी सूद को छोड देने की आज्ञा दी गई है और न छोडने पर अल्लाह और उसके पैगम्बर से युद्ध् की धमकी दी गई है। (कुरआन 2/279)
5. इस्लाम ही को यह श्रेय भी प्राप्त है कि उसने धार्मिक रूप से रिश्वत (घूस) को निषिद्ध् ठहराया है (कुरआन 2/188) हजरत मुहम्मद साहब ने रिश्वत देनेवाले और लेनेवाले दोनों पर खुदा की लानत भेजी ।
6. इस्लाम ही ने सबसे प्रथम स्त्रियों को सम्पति का अधिकार प्रदान किया, उसने मृतक की सम्पति में भी स्त्रियों को भाग दिया। इस्लाम में विधवा के लिए कोई कठोर नियम नहीं है। पति की मृत्यु के चार महीने दस दिन बाद वह अपना विवाह कर सकती है।
7. इस्लाम ही ने अनिवार्य परिस्थिति में स्त्रियों को पति त्याग का अधिकार प्रदान किया है।
8. यह इस्लाम ही है जिसने किसी स्त्री के सतीत्व पर लांछना लगाने वाले के लिए चार साक्ष्य उपस्थित करना अनिवार्य ठहराया है और यदि वह चार साक्ष्य उपस्थित न कर सके तो उसके लिए अस्सी कोडों की सजा नियत की है।
9. इस्लाम ही है जिसे कम नापने और कम तौलने को वैधानिक अपराध के साथ धार्मिक पाप भी ठहराया और बताया कि परलोक में भी इसकी पूछ होगी।
10. इस्लाम ने अनाथों के सम्पत्तिहरण को धार्मिक पाप ठहराया है। (कुरआनः)
11. इस्लाम कहता है कि यदि तुम ईश्वर से प्रेम करते हो तो उसकी सृष्टि से प्रेम करो।
12. इस्लाम कहता है कि ईश्वर उससे प्रेम करता है जो उसके बन्दों के साथ अधिक से अधिक भलाई करता है।
13. इस्लाम कहता है कि जो प्राणियों पर दया करता है, ईश्वर उसपर दया करता है।
14. दया ईमान की निशानी है। जिसमें दया नहीं उसमें ईमान नहीं।
15. किसी का ईमान पूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि वह अपने साथी को अपने समान न समझे।
16. इस्लाम के अनुसार इस्लामी राज्य कुफ्र (अधर्म) को सहन कर सकता है, परन्तु अत्याचार और अन्याय को सहन नहीं कर सकता।
17. इस्लाम कहता है कि जिसका पडोसी उसकी बुराई से सुरक्षित न हो वह ईमान नहीं लाया।
18. जो व्यक्ति किसी व्यक्ति की एक बालिश्त भूमि भी अनधिकार रूप से लेगा वह कघ्यिामत के दिन सात तह तक पृथ्वी में धॅसा दिया जाएगा।
19. इस्लाम में जो समता और बंधुत्व है वह संसार के किसी धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म में हरिजन घृणित और अपमानित माने जाते हैं। इस भावना के विरूद्ध है।

Islam : Barnaad Sha : Vishambhar Naath Pandey


बर्नाड शाॅ,
बर्नाड शाॅ,(मशहूर दार्शनिक) जो किसी मसले के सारे ही पहलुओं का गहराई के साथ जायज़ा लेने वाले व्यक्ति थे, उन्होंने इस्लाम के उसूलों का विश्लेषण करने के बाद कहा -‘‘दुनिया में बाकी और कायम रहने वाला दीन (धर्म) यदि कोई है तो वह केवल इस्लाम है।’’ आज 1957 ई. में जब हम मानव-चिंतन को जागृत करने और जनता को उनकी खुदी से अवगत कराने की थोड़ी-बहुत कोशिश करते हैं तो कितना विरोध होता है। चैदह सौ साल पहले जब नबी (सल्ल) ने यह संदेश दिया कि बुतों (मूर्तियों) को खुदा न बनाओ। अनेक खुदाओं को पूजने वालों के बीच खड़े होकर यह ऐलान किया कि बुत तुम्हारे खुदा नहीं हैं। उनके आगे सिर मत झुकाओ। सिर्फ एक स्रष्टा ही की उपासना करो।
इस ऐलान के लिए कितना साहस चाहिए था, इस संदेश का कितना विरोध हुआ होगा। विरोध के तूफान के बीच पूरी दृढ़ता के साथ आप (सल्ल.) यह क्रांतिकारी संदेश देते रहे, यह आप (सल्ल) की महानता का बहुत बड़ा सुबूत है।
इस्लाम अपनी सारी खूबियों और चमक-दमक के साथ हीरे की तरह आज भी मौजूद है। अब इस्लाम के अनुयायियों का यह कर्तव्य है कि वे इस्लाम धर्म को सच्चे रूप में अपनाएँ। इस तरह वे अपने रब की प्रसन्नता और खुशी भी हासिल कर सकते हैं और गरीबों और मजबूरों की परेशानी भी हल कर सकते हैं। और मानवता भौतिकी एवं आध्यात्मिक विकास की ओर तीव्र गति से आगे बढ़ सकती है।’’ ‘मुहम्मद (सल्ल.) का जीवन-चरित्र’ पर भाषण 7 अक्टूबर 1957 ई.
विशम्भर नाथ पाण्डे (इतिहासकार) भूतपूर्व राज्यपाल, उड़ीसा
(मोहम्मद साहब पर अवतरित) कुरआन ने मनुष्य के आध्यात्मिक, आर्थिक और राजकाजी जीवन को जिन मौलिक सिद्धांतों पर कायम करना चाहा है उनमें लोकतंत्र को बहुत ऊँची जगह दी गई है और समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व-भावना के स्वर्णिम सिद्धांतों को मानव जीवन की बुनियाद ठहराया गया है।
कुरआन ‘‘तौहीद’’ यानी एकेश्वरवाद को दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई बताता है। वह आदमी की जि़न्दगी के हर पहलू की बुनियाद इसी सच्चाई पर कायम करता है। कुरआन का कहना है कि जब कुल सृष्टि का ईश्वर एक है तो लाज़मी तौर पर कुल मानव समाज भी उसी ईश्वर की एकता का एक रूप है। आदमी अपनी बुद्धि और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ सकता इै। इसलिए आदमी का सबसे पहला कर्तव्य यह है कि ईश्वर की एकता को अपने धर्म-ईमान की बुनियाद बनाए और अपने उस मालिक के सामने, जिसने उसे पैदा किया और दुनिया की नेमतें दीं, सर झुकाए। आदमी की रूहानी जि़न्दगी का यही सबसे पहला उसूल है।
आदमी की समाजी जि़न्दगी का पहला धर्म कुरआन में गरीबों, लाचारों, दुखियों और पीडि़तों से सहानुभूति और उनकी सहायता करना बताया गया है। कुरआन ने इन्सान के समाजी जीवन की बुनियाद ईश्वर की एकता और इन्सानी भाईचारे पर रखी है। कुरआन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह इन्सानियत के, मानवता के, टुकड़े नहीं करता। इस्लाम के इन्सानी भाईचारे की परिधि में कुल मानवजाति, कुल इन्सान शामिल हैं और हर व्यक्ति को सदा सबकी अर्थात् अखिल मानवता की भलाई, बेहतरी और कल्याण का ध्येय अपने सामने रखना चाहिए। कुरआन का कहना है कि सारा मानव समाज एक कुटुम्ब है। कुरआन की कई आयतों में नबियों और पैगम्बरों को भी भाई शब्द से संबोधित किया गया है। मुहम्मद साहब हर समय की नमाज के बाद आमतौर पर यह कहा करते थेकृ‘‘मैं साक्षी हूँ कि दुनिया के सब आदमी एक-दूसरे के भाई हैं।’’ यह शब्द इतनी गहराई और भावुकता के साथ उनके गले से निकलते थे कि उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगते थे।
इससे अधिक स्पष्ट और जोरदार शब्दों में मानव-एकता और मानवजाति के एक कुटुम्ब होने का बयान नहीं किया जा सकता। कुरआन की यह तालीम और इस्लाम के पैगम्बर की यह मिसाल उन सारे रिवाजों और कायदे-कानूनों और उन सब कौमी, मुल्की, और नस्ली...गिरोहबन्दियों को एकदम गलत और नाजायज कर देती है जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अलग करती हैं और मानव-मानव के बीच भेदभाव और झगडे़ पैदा करती हैं। पैगम्बर मुहम्मद, कुरआन और हदीस, इस्लामी दर्शन’ गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली, 1994

Moon Light Reflected Light


चांद का प्रकाश प्रतिबिंबित प्रकाश है
बड़ा पवित्र है वह जिसने आसमान में बुर्ज ( दुर्ग ) बनाए और उसमें एक चिराग
और चमकता हुआ चांद आलोकित किया । (अल-कुरआन ,सूरः 25 आयत 61)
वही है जिस ने सूरज को उजालेदार बनाया और चांद को चमक दी।
( अल-कुरआन सूरः 10, आयत 5)
क्या देखते नहीं हो कि अल्लाह ने किस प्रकार सात आसमान एक के ऊपर एक बनाए और उनमें चांद को नूर त्मसिमबजमक स्पहीज (ज्योति) और सूरज को चिराग (दीपक) बनाया । (अल-कुरआन सूरः71 आयत 15 से 16)

Venagta chillam Adiyaar :Editor Murasoli


वेनगताचिल्लम अडियार
वरिष्ठ तमिल लेखक न्यूज़ एडीटर दैनिक ‘मुरासोली’, तमिलनाडु के 3 मुख्यमंत्रियों के सहायक, कलाइममानी अवार्ड (विग जेम आॅफ आर्ट्स),120 उपन्यासों, 13 पुस्तकों, 13 ड्रामों के लेखक,संस्थापक, पत्रिका ‘नेरोत्तम’
‘‘औरत के अधिकारों से अनभिज्ञ अरब समाज में प्यारे नबी (सल्ल) ने औरत को मर्द के बराबर दर्जा दिया। औरत का जायदाद और सम्पत्ति में कोई हक न था, आप (सल्ल) ने विरासत में उसका हक नियत किया। औरत के हक और अधिकार बताने के लिए कुरआन में निर्देश उतारे गए। माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों की जायदाद में औरतों को भी वारिस घोषित किया गया। आज सभ्यता का राग अलापने वाले कई देशों में औरत को न जायदाद का हक है न वोट देने का। इंग्लिस्तान में औरत को वोट का अधिकार 1928 ई. में पहली बार दिया गया। भारतीय समाज में औरत को जायदाद का हक पिछले दिनों में हासिल हुआ। लेकिन हम देखते हैं कि आज से चैदह सौ वर्ष पूर्व ही ये सारे हक और अधिकार नबी (सल्ल) ने औरतों को प्रदान किए। कितने बड़े उपकारकर्ता हैं आप।
आप (सल्ल) की शिक्षाओं में औरतों के हक पर काफी ज़ोर दिया गया है। आप (सल्ल) ने ताकीद की कि लोग कर्तव्य से गाफिल न हों और न्यायसंगत रूप से औरतों के हक अदा करते रहें। आप (सल्ल) ने यह भी नसीहत की है कि औरत को मारा-पीटा न जाए। औरत के साथ कैसा बर्ताव किया जाए, इस संबंध में नबी (सल्ल॰) की बातों का अवलोकन कीजिए
1. अपनी पत्नी को मारने वाला अच्छे आचरण का नहीं है।
2. तुममें से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह है जो अपनी पत्नी से अच्छा सुलूक करे।
3. अल्लाह औरतों के साथ अच्छे तरीके से पेश आने का हुक्म देता है, क्योंकि वे तुम्हारी माँ, बहन और बेटियाँ हैं 4. माँ के कदमों के नीचे जन्नत है। 5. कोई मुसलमान अपनी पत्नी से नफरत न करे। अगर उसकी कोई एक आदत बुरी है तो उसकी दूसरी अच्छी आदत को देखकर मर्द को खुश होना चाहिए।
6. अपनी पत्नी के साथ दासी जैसा व्यवहार न करो। उसको मारो भी मत।
7. जब तुम खाओ तो अपनी पत्नी को भी खिलाओ। जब तुम पहनो तो अपनी पत्नी को भी पहनाओ।
8. पत्नी को ताने मत दो। चेहरे पर न मारो। उसका दिल न दुखाओ। उसको छोड़कर न चले जाओ।
9. पत्नी अपने पति के स्थान पर समस्त अधिकारों की मालिक है।
10. अपनी पत्नियों के साथ जो अच्छी तरह बर्ताव करेंगे, वही तुम में सबसे बेहतर हैं।

Rajendra Narayan Lal (Kashi Hindu University)


राजेन्द्र नारायण लाल एम.ए. इतिहासकार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
‘‘...संसार के सब धर्मों में इस्लाम की एक विशेषता यह भी है कि इसके विरुद्ध जितना भ्रष्ट प्रचार हुआ किसी अन्य धर्म के विरुद्ध नहीं हुआ । सबसे पहले तो महाईशदूत मुहम्मद साहब की जाति कुरैश ही ने इस्लाम का विरोध किया और अन्य कई साधनों के साथ भ्रष्ट प्रचार और अत्याचार का साधन अपनाया। यह भी इस्लाम की एक विशेषता ही है कि उसके विरुद्ध जितना प्रचार हुआ वह उतना ही फैलता और उन्नति करता गया तथा यह भी प्रमाण हैकृ इस्लाम के ईश्वरीय सत्य-धर्म होने का। इस्लाम के विरुद्ध जितने प्रकार के प्रचार किए गए हैं और किए जाते हैं उनमें सबसे उग्र यह है कि इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला, यदि ऐसा नहीं है तो संसार में अनेक धर्मों के होते हुए इस्लाम चमत्कारी रूप से संसार में कैसे फैल गया? इस प्रश्न या शंका का संक्षिप्त उत्तर तो यह है कि जिस काल में इस्लाम का उदय हुआ उन धर्मों के आचरणहीन अनुयायियों ने धर्म को भी भ्रष्ट कर दिया था। अतः मानव कल्याण हेतु ईश्वर की इच्छा द्वारा इस्लाम सफल हुआ और संसार में फैला, इसका साक्षी इतिहास है...।’’
‘‘...इस्लाम को तलवार की शक्ति से प्रसारित होना बताने वाले (लोग) इस तथ्य से अवगत होंगे कि अरब मुसलमानों के गैर-मुस्लिम विजेता तातारियों (मंगोलो) ने विजय के बाद विजित अरबों का इस्लाम धर्म स्वयं ही स्वीकार कर लिया। ऐसी विचित्र घटना कैसे घट गई? तलवार की शक्ति जो विजेताओं के पास थी वह इस्लाम से विजित क्यों हो गई...?’’
‘‘...मुसलमानों का अस्तित्व भारत के लिए वरदान ही सिद्ध हुआ। उत्तर और दक्षिण भारत की एकता का श्रेय मुस्लिम साम्राज्य, और केवल मुस्लिम साम्राज्य को ही प्राप्त है। मुसलमानों का समतावाद भी हिन्दुओं को प्रभावित किए बिना नहीं रहा। अधिकतर हिन्दू सुधारक जैसे रामानुज, रामानन्द, नानक, चैतन्य आदि मुस्लिम-भारत की ही देन है। भक्ति आन्दोलन जिसने कट्टरता को बहुत कुछ नियंत्रित किया, सिख धर्म और आर्य समाज जो एकेश्वरवादी और समतावादी हैं, इस्लाम ही के प्रभाव का परिणाम हैं। समता संबंधी और सामाजिक सुधार संबंधी सरकारी कानून जैसे अनिवार्य परिस्थिति में तलाक और पत्नी और पुत्री का सम्पत्ति में अधिकतर आदि इस्लाम प्रेरित ही हैं..।’’
‘इस्लाम एक स्वयंसिद्ध ईश्वरीय जीवन व्यवस्था’ पृष्ठ 40,42,52 से उद्धृत साहित्य सौरभ, नई दिल्ली, 2007 ई.

Islam : Swami Vivekanand


स्वामी विवेकानंद (विश्व-विख्यात धर्मविद्)
‘‘...मुहम्मद (इन्सानी) बराबरी, इन्सानी भाईचारे और तमाम मुसलमानों के भाईचारे के पैगम्बर थे। ...जैसे ही कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करता है पूरा इस्लाम बिना किसी भेदभाव के उसका खुली बॅाहों से स्वागत करता है, जबकि कोई दूसरा धर्म ऐसा नहीं करता। ...हमारा अनुभव है कि यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने इस (इन्सानी) बराबरी को दिन-प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक स्तर पर बरता है तो वे इस्लाम और सिर्फ इस्लाम के अनुयायी हैं। ...मुहम्मद (सल्ल) ने अपने जीवन-आचरण से यह बात सिद्ध कर दी कि मुसलमानों में भरपूर बराबरी और भाईचारा है। यहाँ वर्ण, नस्ल, रंग या लिंग (के भेद) का कोई प्रश्न ही नहीं। ...इसलिए हमारा पक्का विश्वास है कि व्यहवारिक इस्लाम की मदद लिए बिना वेदांती सिद्धांत चाहे वे कितने ही उत्तम और अद्भुत हो विशाल मानव-जाति के लिए मूल्यहीन (टंसनमसमेे) हैं...।’’ टीचिंग्स आफ विवेकानंद, पृष्ठ-214, 215, 217, 218)अद्वैत आश्रम, कोलकाता-2004
तरुण विजय सम्पादक, हिन्दी साप्ताहिक ‘पा॰चजन्य’ (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पत्रिका)
‘‘...क्या इससे इन्कार मुमकिन है कि पैगम्बर मुहम्मद एक ऐसी जीवन-पद्धति बनाने और सुनियोजित करने वाली महान विभूति थे जिसे इस संसार ने पहले कभी नहीं देखा? उन्होंने इतिहास की काया पलट दी और हमारे विश्व के हर क्षेत्र पर प्रभाव डाला। अतः अगर मैं कहूँ कि इस्लाम बुरा है तो इसका मतलब यह हुआ कि दुनिया भर में रहने वाले इस धर्म के अरबों (ठपससपवदे) अनुयायियों के पास इतनी बुद्धि-विवेक नहीं है कि वे जिस धर्म के लिए जीते-मरते हैं उसी का विश्लेषण और उसकी रूपरेखा का अनुभव कर सकें। इस धर्म के अनुयायियों ने मानव-जीवन के लगभग सारे क्षेत्रों में नाम कमाया और हर किसी से उन्हें सम्मान मिला...।’’
‘‘हम उन (मुसलमानों) की किताबों का, या पैगम्बर के जीवन-वृत्तांत का, या उनके विकास व उन्नति के इतिहास का अध्ययन कम ही करते हैं... हममें से कितनों ने तवज्जोह के साथ उस परिस्थिति पर विचार किया है जो मुहम्मद(सल्ल.) के, पैगम्बर बनने के समय, 14 शताब्दियों पहले विद्यमान थे और जिनका बेमिसाल, प्रबल मुकाबला उन्होंने किया? जिस प्रकार से एक अकेले व्यक्ति के आत्म-बल तथा आयोजन-क्षमता ने हमारी जि़न्दगियों को प्रभावित किया और समाज में उससे एक निर्णायक परिवर्तन आ गया, वह असाधारण था। फिर भी इसकी गतिशीलता के प्रति हमारा जो अज्ञान है वह हमारे लिए एक ऐसे मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं है जिसे मान्य नहीं किया जा सकता।’’ आलेख (ज्ञदवू जील दमपहीइवतश्े पजश्े त्ंउ्रंद) अंग्रेजी दैनिक ‘एशियन एज’, 17 नवम्बर 2003 से उद्धृत

Islam and Premchand a leading Writer


मुंशी प्रेमचंद (प्रसिद्ध साहित्यकार)
‘‘...जहाँ तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने। ...इस्लाम की बुनियाद न्याय पर रखी गई है। वहाँ राजा और रंक, अमीर और गरीब, बादशाह  के लिए ‘केवल एक’ न्याय है। किसी के साथ रियायत नहीं किसी का पक्षपात नहीं। ऐसी सैकड़ों रिवायतें पेश की जा सकती है जहाँ बेकसों ने बड़े-बडे बलशाली आधिकारियों के मुकाबले में न्याय के बल से विजय पाई है। ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं जहाँ बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेगम, यहाँ तक कि स्वयं अपने तक को न्याय की वेदी पर होम कर दिया है। संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की, इस्लामी की न्याय-नीति से तुलना कीजिए, आप इस्लाम का पल्ला झुका हुआ पाएँगे...।’’
‘‘...जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर डेन्यूबा तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फहराता था मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी (समकक्ष) नहीं रखती थी। बड़े से बड़े राज्यपदों पर गैर-मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी, महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे...।’’
‘‘...यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस (समता) के विषय में इस्लाम ने अन्य सभी सभ्यताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे सिद्धांत जिनका श्रेय अब कार्ल मार्क्स और रूसो को दिया जा रहा है वास्तव में अरब के मरुस्थल में प्रसूत हुए थे और उनका जन्मदाता अरब का वह उम्मी (अनपढ़, निरक्षर व्यक्ति) था जिसका नाम मुहम्मद (सल्ल) है। मुहम्मद (सल्ल) के सिवाय संसार में और कौन धर्म प्रणेता हुआ है जिसने खुदा के सिवाय किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह (पाप) ठहराया है...?’’
‘‘...कोमल वर्ग के साथ तो इस्लाम ने जो सलूक किए हैं उनको देखते हुए अन्य समाजों का व्यवहार पाशविक जान पड़ता है। किस समाज में स्त्रियों का जायदाद पर इतना हक माना गया है जितना इस्लाम में? ...हमारे विचार में वही सभ्यता श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है जो व्यक्ति को अधिक से अधिक उठने का अवसर दे। इस लिहाज से भी इस्लामी सभ्यता को कोई दूषित नहीं ठहरा सकता।’’
‘‘...हजरत (मुहम्मद सल्ल) ने फरमाया कोई मनुष्य उस वक्त तक मोमिन (सच्चा मुस्लिम) नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई-बन्दों के लिए भी वही न चाहे जितना वह अपने लिए चाहता है। ...जो प्राणी दूसरों का उपकार नहीं करता खुदा उससे खुश नहीं होता। उनका यह कथन सोने के अक्षरों में लिखे जाने योग्य हैकृ ‘‘ईश्वर की समस्त सृष्टि उसका परिवार है वही प्राणी ईश्वर का (सच्चा) भक्त है जो खुदा के बन्दों के साथ नेकी करता है।’’ ...अगर तुम्हें खुदा की बन्दगी करनी है तो पहले उसके बन्दों से मुहब्बत करो।’’
‘‘...सूद (ब्याज) की पद्धति ने संसार में जितने अनर्थ किए हैं और कर रही है वह किसी से छिपे नहीं है। इस्लाम वह अकेला धर्म है जिसने सूद को हराम (अवैध) ठहराया है...।’’
‘इस्लामी सभ्यता’ साप्ताहिक प्रताप विशेषांक दिसम्बर 1925

Son And Daughter of Mohammad SAW


साहिबे-कुरआन मुह्म्मदुर्रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बेटे-बेटियां
1. कासिम- यह आपकी पहली औलाद हैं । आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की कुन्निय्यत (उपनाम) अबुल कासिम इन्ही के नाम पर है । हजरत खदीजा (रजी.) से पैदा हुये पांव-पांव चलना सीख गये थे कि इन्तिकाल कर गये ।
2. अब्दुल्लाह- यह भी हजरत खदीजा (रजी.) से हैं। इनका लकब तय्यब और ताहिर था । नबूवत के बाद पैदा हुये । इन्हीं के देहान्त पर सूरः कौसर नाजि़ल हुयी । मक्का में बचपन में देहान्त हुआ ।
3. इब्राहिम- हजरत मारिया किबतिय्या से 9 हिजरी में मदीना में पैदा हुये । बरा बिन औंफ की पत्नी उम्मे बुर्दा इन्हें दूध पिलाया था । 18 माह की आयु सीमा पार कर 10 हिजरी में वफात पाई ।
4. जैनब- यह हजरत खदीजा (रजी.) से हैं । नबूवत से 10 साल पहले मक्का में पैदा हुयीं उस समय आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की उम्र 30 वर्ष थी । यह केवल कासिम से उम्र में छोटी थीं । इनका निकाह सगी खाला के लडके अबुल आस से हुआ । हिजरत के सफर में हब्बार बिन असवद के नेज़ा (भाला) मारने से गर्भपात हो गया था । 30  वर्ष की उम्र में 8 हिजरी में इन्तिकाल हो गया । शौहर का इन्तिकाल 12  हिजरी में हुआ । एक लडका अली और लडकी उमामा नाम के पैदा हुये ।
5.रुकय्या- हजरत खदीजा (रजी.) की औलाद हैं । बडी बहन जैनब से 3 साल छोटी थीं । यह उस समय पैदा हुयीं जब आपकी उम्र 33 वर्ष की थी । हजरत उस्मान (रजी.) से निकाह हुआ । अल्लाह की राह में शौहर के साथ हिजरत करने वाली पहली खातून हैं । 2 हिजरी में 21  वर्ष की उम्र में चेचक की महामारी में देहान्त हुआ । उसामा बिन जैद कफन-दफन में शरीक थे । हजरत तल्हा अन्सारी ने कब्र में उतारा हजरत अनस रजि़ फरमाते हैं कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इनकी कब्र पर बैठे हुये थे और आंखों से आंसूं बह रहे थे । इनकी कोई औलाद नही थी ।
7.फातिमा- हजरत खदीजा(रजी.) की अन्तिम औलाद हैं। 1 नबूवत में पैदा हुयीं । उस समय आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की उम्र 41  वर्ष थी। आपकी सबसे चहेती बेटी हैं । इन्हें अपनी तीनों बहनों पर इस बात का फख्र है कि केवल इन्ही की नस्ल दुनिया में बाकी हैं । हजरत अली रजि़ से जंग बद्र के बाद निकाह हुआ । 3 रमजान 11 हिजरी मंगल को देहान्त हुआ । इनकी कब्र जन्नतुल बकी में है । वसीयत के मुताबिक शौहर हजरत अली ने इन्हे स्वंय गुस्ल दिया और उन्होंने ही जनाजा की नमाज पढाई । दो लडके हसन, हुसैन और दो लडकियां उम्मे कुलसूम और जैनब नाम की पैदा हुयीं ।

Quran and Science : Skin Receptors and Quran


त्वचा में दर्द के अभिग्राहकःReceptors
पहले यह समझा जाता था कि अनुभूतियां और दर्द केवल दिमाग पर निर्भर होती है। अलबत्ता हाल के शोध से यह जानकारी मिली है कि त्वचा में दर्द को अनुभूत करने वाले ‘‘अभिग्राहकरू त्मबमचजवते’’ होते हैं। अगर ऐसी कोशिकाएं न हों तो मनुष्य दर्द की अनुभूति (महसूस) करने योग्य नहीं रहता । जब कोई डाक्टर किसी रोगी में जलने के कारण पड़ने वाले घावों को इलाज के लिये, परखता है तो वह जलने का नुकसान मालूम करने के लिये जले हुए स्थल पर सूई चुभोकर देखता है अगर सूई चुभने से प्रभावित व्यक्ति को दर्द महसूस होता है, तो चिकित्सक या डाक्टर को इस पर प्रसन्नता होती है। इसका अर्थ यह होता है कि जलने का घाव केवल त्वचा के बाहरी हद तक है और दर्द महसूस करने वाली केाशिकाएं जीवित और सुरक्षित हैं। इसके प्रतिकूल अगर प्रभावित व्यक्ति को सुई चुभने पर दर्द अनुभूत नहीं हो तो यह चिंताजनक स्थिति होती है क्योंकि इसका अर्थ यह है कि जलने के कारण बनने वाले घाव जख्म की गहराई अधिक है और दर्द महसूस करने वाली कोशिकाएं भी मर चुकी हैं।
‘‘जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इन्कार कर दिया उन्हें निस्संदेह, हम आग में झोंकेंगे और जब उनके शरीर की त्वचा (खाल) गल जाएगी तो, उसकी जगह दूसरी त्वचा पैदा कर देंगे ताकि वह खूब यातना (अज़ाब) का स्वाद चखें अल्लाह बड़ी ‘कुदरत एवं प्रभुता’ रखता है और अपने फैसलों को व्यवहार में लाने की हिक्मत (विज्ञान) भली भांति जानता है।(अल-कुरआन सूरः 4 आयत .56 )
थाईलैण्ड में चियांग माई युनीवर्सिटी के उदर विभाग; क्मचंतजउमदज व ि।दंजवउलद्ध के संचालक प्रोफेसर तीगातात तेजासान ने दर्द कोशिकाओं के संदर्भ में शोध पर बहुत समय खर्च किया पहले तो उन्हे विश्वास ही नहीं हुआ कि पवित्र कुरआन ने 1400 वर्ष पहले इस वैज्ञानिक यथार्थ का रहस्य उदघाटित कर दिया था। फिर इसके बाद जब उन्होंने उपरोक्त पवित्र आयतों के अनुवाद की बाज़ाब्ता पुष्टि करली तो वह पवित्र कुरआन की वैज्ञानिक सम्पूर्णता से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए। तभी सऊदी अरब के रियाज नगर में एक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसका विषय था ‘‘पवित्र कुरआन और सुन्नत में वैज्ञानिक निशानियां’’ प्रोफेसर तेजासान भी उस सम्मेलन में पहुंचे और सऊदी अरब के शहर रियाज में आयोजित ‘‘आठवें सऊदी चिकित्सा सम्मेलन’’ के अवसर पर उन्होंने भरी सभा में गर्व और समर्पण के साथ सबसे पहले कहा-
‘‘ अल्लाह के सिवा कोई माबूद (पूजनीय) नहीं, और मुहम्मद (सल्ल.)उसके रसूल हैं।’’
अधिक जानकारी के लिये पुस्तक -‘‘कुरआन और साईन्स’’ देखें

Islam :Astronomy and big Bang


अंतरिक्ष - विज्ञान ंेजतवसवहल सृष्टि की संरचना ‘‘बिग बैंग’’
अंतरिक्ष विज्ञान के विशेषज्ञों ने सृष्टि की व्याख्या एक ऐसे सूचक (चीमदवउमदवद) के माध्यम से करते हैं और जिसे व्यापक रूप ‘‘से बिग बैंग’’ (इपह इंदह) के रूप में स्वीकार किया जाता है। बिग बैंग के प्रमाण में पिछले कई दशकों की अवधि में शोध एवं प्रयोगों के माध्यम से अंतरिक्ष विशेषज्ञों की इकटठा की हुई जानकारियां मौजूद है ‘बिग बैंग’ दृष्टिकोण के अनुसार प्रारम्भ में यह सम्पूर्ण सृष्टि प्राथमिक रसायन (चतपउंतल दमइनसं) के रूप में थी फिर एक महान विस्फोट यानि बिग बैंग (ेमबवदकतल ेमचंतंजपवद) हुआ जिस का नतीजा आकाशगंगा के रूप में उभरा, फिर वह आकाश गंगा विभाजित हुआ और उसके टुकड़े सितारों, ग्रहों, सूर्य, चंद्रमा आदि के अस्तित्व में परिवर्तित हो गए कायनात, प्रारम्भ में इतनी पृथक और अछूती थी कि संयोग (बींदबम) के आधार पर उसके अस्तित्व में आने की ‘‘सम्भावना (चतवइंइपसपजल) शून्य थी । पवित्र कुरआन सृष्टि की संरचना के संदर्भ से निम्नलिखित आयतों में बताता है-
‘‘क्या वह लोग जिन्होंने ( नबी मोहम्मद सल्ल. की पुष्टि ) से इन्कार कर दिया है ध्यान नहीं करते कि यह सब आकाश और धरती परस्पर मिले हुए थे फिर हम ने उन्हें अलग किया’’ (अल - कुरआन सुरः 21, आयत 30 )
इस कुरआनी वचन और ‘‘बिग बैंग‘‘ के बीच आश्चर्यजनक समानता से इन्कार सम्भव ही नहीं! यह कैसे सम्भव है कि एक किताब जो आज से 1400 वर्ष पहले अरब के रेगिस्तानों में व्यक्त हुई अपने अन्दर ऐसे असाधारण वैज्ञानिक यथार्थ समाए हुए है?
एक बार फिर, यह यथार्थ भी ‘‘बिग बैंग‘‘ के अनुकूल है जिसके बारे में हजरत मुहम्मद मुस्तफा (सल्ल.) की पैगम्बरी से पहले किसी को कुछ ज्ञान नहीं था (बिग बैंग दृष्टिकोण बीसवीं सदी यानी पैगमबर काल के 1300 वर्ष बाद की पैदावार है )
अगर इस युग में कोई भी इसका जानकार नहीं था तो फिर इस ज्ञान का स्रोत क्या हो सकता है?
(अधिक जानकारी के लिये देखें ‘कुरआन और साईन्स’)

Promise and Amaanat


वादा और अमानत
1. हे आस्तिको (मोमिनों)! प्रतिज्ञाओं (कसमों )को पूरा करो। - कुरआन (5,1)
2. और अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन करो, निःसंदेह प्रतिज्ञा के   विषय में जवाब तलब किया जाएगा।-कुरआन (17, 34)
3. और अल्लाह से जो प्रतिज्ञा करो उसे पूरा करो।-कुरआन (6,153)
4. और तुम अल्लाह के वचन को पूरा करो जब आपस में वचन कर लो और सौगंध (अहद) को पक्का करने के बाद न तोड़ो और तुम अल्लाह को गवाह भी बना चुके हो, निःसंदेह अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो। -कुरआन (16, 91)
5. निःसंदेह अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतें उनके हकदारों को पहुंचा दो और जब लोगों में फैसला करने लगो तो इंसाफ से फैसला करो।  -कुरआन (4, 58)
6. और तुम लोग अल्लाह के वचन को थोड़े से माल के बदले मत बेच डालो (अर्थात लालच में पड़कर सत्य से विचलित न हुआ करो), निःसंदेह जो अल्लाह के यहां है वही तुम्हारे लिए बहुत अच्छा है यदि समझना चाहो। -कुरआन (16, 95)
महत्वपूर्ण आदेश आज्ञाकारी और पूर्ण समर्पित लोगों को ही दिए जाते हैं। जो लोग समर्पित नहीं होते वे किसी को अपना मार्गदर्शक भी नहीं मानते और न ही वे अपने घमंड में उनकी दिखाई राह पर चलते हैं। इसीलिए यहां जो आदेश दिए गए हैं, उनका संबोधन ईमान वालों (मुसलमानों) से है।
समाज की शांति के लिए यह जरूरी है कि समाज के लोग आपस में किए गए वादों को पूरा करें और जिस पर जिस किसी का भी हक वाजिब है, वह उसे अदा कर दे।  अगर समाज के सदस्य लालच में पड़कर ऐसा न करें और यह चलन आम हो जाए तो जिस फायदे के लिए वे ऐसा करेंगे उससे बड़ा नुक्सान समाज को वे पहुंचाएंगे और आखिरकार कुछ समय बाद खुद भी वे उसी का शिकार बनेंगे। परलोक की यातना का कष्ट भी उन्हें झेलना पड़ेगा, जिसके सामने सारी दुनिया का फायदा भी थोड़ा ही मालूम होगा। वादे, वचन और संधि केबारे में परलोक में पूछताछ जरूर होगी। यह ध्यान में रहे तो इंसान के दिल से लालच और उसके अमल से अन्याय घटता चला जाता है।स्वर्ग में दाखिले की बुनियादी शर्त है सच्चाई। जिसमें सच्चाई  का गुण है तो वह अपने वादों का भी पाबंद जरूर.....

होगा। जो अल्लाह से किए गए वादों को पूरा करेगा, वह लोगों से किए गए वायदों को भी पूरा करेगा। वादों और प्रतिज्ञाओं का संबंध ईमान और सच्चाई से है और जिन लोगों में ये गुण होंगे, वही लोग स्वर्ग में जाने के अधिकारी हैं और जिस समाज में ऐसे लोगों की अधिकता होगी, वह समाज दुनिया में भी स्वर्ग की शांति का आनंद पाएगा।
अमानत को लौटाना भी एक प्रकार से वायदे का ही पूरा करना है। यह जान और दुनिया का सामान जो कुछ भी है, कोई इंसान इसका मालिक नहीं है बल्कि इन सबका मालिक एक अल्लाह है और ये सभी चीजें इंसान के पास अमानत के तौर पर हैं। वह न अपनी जान दे सकता है और न ही किसी की जान अन्यायपूर्वक ले सकता है। दुनिया की चीजों को भी उसे वैसे ही बरतना होगा जैसा कि उसे हुक्म दिया गया है। दुनिया के सारे कष्टों, भ्रष्टाचार और आतंकवाद को रोकने के लिए बस यही काफी है।
    अरबी में ‘अमानत’ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। जिम्मेदारियों को पूरा करना, नैतिक मूल्यों को निभाना, दूसरों के अधिकार उन्हें सौंपना और सलाह के मौकों पर सद्भावना सहित सलाह देना भी अमानत के दायरे में ही आता है। अमानत के बारे में आखिरत मे सवाल का ख्याल ही उसके सही इस्तेमाल की गारंटी है। कुरआन यही ज्ञान देता है।
वास्तव में सिर्फ इस दुनिया का बनाने वाला ही बता सकता है कि इंसान के साथ उसकी मौत के बाद क्या मामला पेश आने वाला है ?
और वे कौन से काम हैं जो उसे मौत के बाद फायदा देंगे ?
वही मालिक बता सकता है इंसान को दुनिया में कैसे रहना चाहिए ?
और मानव का धर्म वास्तव में क्या है ?
कुरआन उसी मालिक की वाणी है जो कि मार्ग दिखाने का वास्तविक अधिकारी है क्योंकि मार्ग, जीवन और सत्य, हर चीज को उसी ने बनाया है। और अपने रसूल मोहम्मद (सल्ल0) को  लोगो के लिये नमूना (त्वसम डवकमस) बना के भेजा ताकि हम इंसान  अपने मालिक की मंशा के मुताबिक अमल कर सकें, अपनी दुनिया व आखिरत कामयाब बना सकें।
साभार- आपकी अमानत आपकी सेवा में

Prophet Mohammad SAW and Environment


पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. और पर्यावरण एक झलक
जल और थल में बिगाड़ फैल गया खुद लोगों की ही हाथों की कमाई के कारण, ताकि वह (अल्लाह) उन्हें उनकी कुछ करतूतों का मजा चखाए, कदाचित वे बाज आ जाएं।   (कुरआन-30/41)
पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया अगर कयामत आ रही हो और तुम में से किसी के हाथ में कोई पौधा हो तो उसे ही लगा दो और परिणाम की चिंता मत करो।
पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया- जिसने अपनी जरूरत से ज़्यादा पानी को रोका और दूसरे लोगों को पानी से वंचित रखा तो अल्लाह फैसले (आखेरत/परलोक) वाले दिन  उस शख्स से अपना फज़्लो करम रोक लेगा।
पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया-जो बंदा कोई पौधा लगाता है या खेतीबाड़ी करता है। फिर उसमें से कोई परिंदा, इंसान या अन्य कोई प्राणी खाता है तो यह सब पौधा लगाने वाले की नेकी (पुण्य) में गिना जाएगा।
पैगम्बर मुहम्मद सल्ल.ने फरमाया-जो भी खजूर का पेड़ लगाएगा, उस खजूर से जितने फल निकलेंगे, अल्लाह उसे उतनी ही नेकी देगा।
पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया- जिस घर में खजूर का पेड़ हो, वह भुखमरी से परेशान नहीं हो सकता।
पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने स्थिर (ठहरे हुये) पानी में पेशाब करने, सार्वजनिक रास्ते, लोगों के छाया हासिल करने की जगहों और पानी के घाट (नदी, तालाब, समुद्र के किनारे) पर शौच करने से रोका है,
ऐसे जानवरों का मांस खाने और उनका दूध पीने से रोका है जो गंदगियों और कचरों का आहार लेते हैं, इसी तरह नुकीले दाँत वाले मांसभक्षी जानवरों और पंजे से शिकार करने वाले परिंदों का गोश्त खाने,  जानवरों को तकलीफ देकर मारने अर्थात् उसे बांध कर किसी चीज से मारना यहाँ तक कि वह मर जाये, या उसे चारा (भोजन) के बिना बांधे रखने से मना किया है, दांत या नाखून से जानवर को जब्ह करने, दूसरे जानवर के सामने किसी जानवर को जि़ब्ह करने, या जानवर के सामने छुरी तेज़ करने से मना किया हैं।

Islam and Neighbour


इस्लाम में पडोसी के अधिकारः
लाला काशीराम चावला
इस्लाम में पडोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बडा बल दिया गया है। परन्तु इसका उद्देश्य यह नहीं है कि पडोसी की सहायता करने से पडोसी भी समय पर काम आये अपितु इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया है, इसे आवश्यक करार दिया गया है और यह कर्तव्य पडोसी ही तक सीमित नहीं है बल्कि किसी भी मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न करने की ताकीद की गई है। पवित्र कुरआन में लिखा है- ‘‘और लोगों से बेरूखी न कर।’’ (कुरआन, 31/18)
पडोसी के साथ अच्छे व्यवहार का विशेष रूप से आदेश है। न केवल निकटतम पडोसी के साथ, बल्कि दूर वाले पडोसी के साथ भी अच्छे व्यवहार की ताकीद आई है। ‘‘और अच्छा व्यवहार करते रहो- माता-पिता के साथ, सगे सम्बन्धियों के साथ, अबलाओं के साथ, दीन-दुखियों के साथ, निकटतम और दूर के पडोसियों के साथ भी।’’ (कुरआन, 4/36)
पडोसी के साथ अच्छे व्यवहार के कई कारण हैं-
एक विशेष बात यह है कि मनुष्य को हानि पहुंचने की आशंका भी उसी व्यक्ति से अधिक होती है जो निकट हो। इस लिये उसके सम्बन्ध को सुदृढ़ और अच्छा बनाना एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य है ताकि पडोसी सुख और प्रसन्नता का साधन हो, न कि दुख और कष्ट का कारण।
पडोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने के सम्बन्ध में जो ईश्वरीय आदेश अभी प्रस्तुत किया गया है उसके महत्व को पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल-) ने विभिन्न ढंग से बताया है और आपने स्वयं भी उस पर अमल किया है।
एक दिन आप अपने मित्रों (सहाबियों) के बीच विराजमान थे। उनसे फरमाया- ‘‘खुदा की कसम, वह मोमिन नहीं! खुदा की कसम, वह मोमिन नहीं! खुदा की कसम, वह मोमिन नहीं!’’ आपने तीन बार इतना बल देकर कहा तो मित्रों ने पूछा- ‘‘कौन ऐ अल्लाह के रसूल?’’ आपने फरमाया- ‘‘वह जिसका पडोसी उसकी शरारतों से सुरक्षित न हो।’’
एक और अवसर पर आपने फरमाया ‘‘जो खुदा पर और कयामत पर ईमान रखता है, उसको चाहिए कि अपने पडोसी की रक्षा करे।’’
एक और हदीस में है कि आपने फरमाया ‘‘जो ईश्वर और कयामत के दिन पर ईमान रखता हो वह अपने पडोसी को कष्ट न दे।’’
एक और अवसर पर आपने फरमाया ‘‘ईश्वर के निकट मित्रों में वह अच्छा है जो अपने मित्रों के लि, अच्छा हो और पडोसियों में वह अच्छा है, जो अपने पडोसियां के लिए अच्छा हो।’’
एक बार आपने अपनी सुपत्नी हजरत आइशा (रजि-) से फरमाया ‘‘जिबरील (अलै.) ने मुझे अपने पडोसी के महत्वपूर्ण अधिकारों की इतनी ताकीद की कि मैं समझा कि कहीं विरासत में वे उसे भागीदार न बना दें।’’
इसका साफ अर्थ यह है कि पडोसी के अधिकार अपने निकटतम सम्बन्धियों से कम नहीं।
एक बार आपने एक साथी हजरत अबू ज़र(रजि.) को नसीहत करते हुए कहा ‘‘अबू ज़र! जब शोरबा पकाओ तो पानी बढा दो और इसके द्वारा अपने पडोसियां की सहायता करते रहो।’’
चूंकि स्त्रियों से पडोस का सम्बन्ध अधिक होता है इस लिए आपने स्त्रियों को सम्बोधित करते हुये विशेष रूप से कहा
‘‘ऐ मुसलमानों की औरतों! तुम में से कोई पड़ोसिन अपनी पड़ोसिन के उपहार को तुच्छ न समझे, चाहे वह बकरी का खुर (छोटी चीज़) ही क्यों न हो।’’
रसूले करीम (सल्ल.) ने पड़ोसियों की खोज-खबर लेते रहते की बडी ताकीद की है और इस बात पर बहुत बल दिया है कि कोई मुसलमान अपने पडोसी के कष्ट और दुख से बेखबर न रहे। एक अवसर पर आपने फरमया ‘‘वह मोमिन नहीं जो खुद पेट भर खाकर सो, और उसकी बगल में उसका पडोसी भूखा रहे।’’
एक बार रसूले करीम (सल्ल-) ने फरमायारू
‘‘व्यभिचार (जि़ना) निषिद्व(हराम) है, ईश्वर और उसके दूतों ने इसे बहुत बुरा काम कहा है। किन्तु दस व्यभिचार से बढकर व्यभिचार यह है कि कोई अपने पडोसी की पत्नी से व्यभिचार करे। चोरी निषिद्व है, अल्लाह और पैगम्बर ने उसे वर्जित ठहराया है, किन्तु दस चेारी से चोरी करने से बढकर यह है कि कोई अपने पडोसी के घर से कुछ चुरा ले।’’
दो मुसलमान स्त्रियों में आपको बताया गया कि पहले स्त्री
धार्मिक नियमों का बहुत पालन करती है किन्तु अपने दुर्वचनों से पडोसियां की नाक में दम कि, रहती है। दूसरी स्त्री साधारण रूप से रोजा-नमाज अदा करती है किन्तु अपने पडोसियों से अच्छा व्यवहार करती है। हजरत रसूले करीम(सल्ल-) ने फरमाया ‘‘पहली स्त्री नरक में जायेगी और दूसरी स्वर्ग में।’’
रसूले करीम(सल्ल-) ने पडोसी के स्वत्व (हक) पर इतना बल दिया है कि शायद ही किसी और विषय पर दिया हो।
एक अवसर पर आपने फरमया
‘‘तुम में कोई मोमिन नहीं हो सकता जब तक अपने पडोसी के लिये भी वही पसन्द न करे जो अपने लिये पसन्द करता है।’’
अर्थात पडोसी से प्रेम न करे तो ईमान तक छिन जाने का खतरा रहता है, यहीं पर बात खत्म नहीं होती, एक और स्थान पर आपने इस बारे में जो कुछ फरमाया वह इससे भी जबरदस्त है। आपने फरमाया ‘‘जिसको यह प्रिय हो कि खुदा और उसका रसूल उससे प्रेम करे या जिसको खुदा और उसके रसूल के प्रेम का दावा हो तो उसको चाहिये कि वह अपने पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करे और उसका हक अदा करे।’’
अर्थात जो पडोसी से प्रेम नहीं करता, उसका खुदा और रसूल से पे्रम का दावा भी झूठा है और खुदा और रसूल के प्रेम की आशा रखना भी भ्रम है। इसी लिये आपने फरमाया है कि कयामत के दिन ईश्वर के न्यायालय में सबसे पहले दो वादी उपस्थित होंगे जो पडोसी होंगे। उनसे एक-दूसरे के सम्बन्ध में पूछा जायेगा।
मनुष्य के सद्व्यवहार एवं कुव्यवहार की सबसे बडी कसौटी यह है कि उसे वह व्यक्ति अच्छा कहे जो उसके बहुत करीब रहता हो। चुनांचे एक दिन आप (सल्ल.) के कुछ साथियों ने आपसे पूछा- ‘‘ऐ अल्लाह के रसूल! हम कैसे जानें कि हम अच्छा कर रहे हैं या बुरा!
आप (सल्ल-) ने फरमाया ‘‘जब अपने पडोसी से तुम अपने बारे में अच्छी बात सुनो तो समझ लो कि अच्छा कर रहे हो और जब बुरी बात सुनो तो समझो बुरा कर रहे हो’’।
पैगम्बरे इस्लाम ने इस विषय में हद तय कर दी है। यही नहीं कि पडोसी के विषय में ताकीद की है बल्कि यह भी कहा है कि अगर पडोसी दुव्र्यवहार करे, तो जवाब में तुम भी दुव्र्यवहार न करो और यदि आवश्यक ही हो तो पडोस छोडकर कहीं अन्य स्थान पर चले जाओ।
मेरे गैर-मुस्लिम भाई इस घटना को पढकर चकित रह जायेंगे और सोचेंगे कि क्या सचमुच एक मुसलमान को इस्लाम धर्म में इतनी सहनशीलता की ताकीद है और क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकता है। हां, निस्सन्देह इस्लाम धर्म और रसूल करीम (सल्ल-) ने ऐसी ही ताकीद फरमाई है और इस्लाम के सच्चे अनुयायी इसके अनुसार अमल करते रहे हैं, जैसा कि उपर की घटनाओं से प्रकट है। अब भी ऐसे पवित्र व्यक्ति इस्लाम के अनुयाइयों मौजूद हैं जो इन सब बातों पर सम्पूर्ण रूप से कार्यन्वित करते हैं, ये ऐसे लोग हैं जिन्हें सिर-आंखों पर बिठाया जाना चाहिए।
मेरे कुछ भाई इस भ्रम में रहते हैं कि पडोसी का अर्थ केवल मुसलमान पडोसी ही से है, गैर-मुस्लिम पडोसी से नहीं। उनके इस भ्रम को दूर करने के लिए एक ही घटना लिख देना पर्याप्त होगा।
एक दिन हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर(रजि.) ने एक बकरी जि़ब्ह की। उनके पडोस में एक यहूदी भी रहता था। उन्होंने अपने घरवालों से पूछा ‘‘क्या तुमने यहूदी पडोसी का हिस्सा इसमें से भेजा है, क्योंकि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) से मुझे इस सम्बन्ध में ताकीद पर ताकीद सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है कि हर एक पडोसी का हम पर हक है।
यही नहीं कि पडोसी के सम्बन्ध में पवित्र कुरआन के इस पवित्र आदेश का समर्थन हजरत मुहम्मद(सल्ल-) ने जबानी फरमाया हो, बल्कि आपके जीवन की घटनाएं भी इसका समर्थन करती हैं।
एक बार कुछ फल हजरत रसूले करीम (सल्ल-) के पास उपहार स्वरूप आया। आपने सर्वप्रथम उनमें से एक भाग अपने यहूदी पडोसी को भेजा और बाकी भाग अपने घर के लोगों को दिया।
मैं यह बात दावे से कह सकता हूं कि निसन्देह धर्म में परस्पर मेल-मिलाप की शिक्षा मौजूद है। परन्तु जितनी जबरदस्त ताकीद पडोसी के सम्बन्ध में इस्लाम धर्म में है, कम से कम मैंने किसी और धर्म में नहीं पाई।
निःसन्देह अन्य धर्मों में हर एक मनुष्य को अपने प्राण की तरह प्यार करना चाहिए, अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही पवित्र ईश्वर के दर्शन करना आदि लिखा है। किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पडोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने और उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्वक सहन करने के बारे में जो शिक्षा पैगम्बर इस्लाम ने खुले शब्दों में दी है वह कहीं और नहीं पाई जाती।
अपने पडोसी से दुव्र्यवहर की जितनी बुराई रसूले करीम (सल्ल) ने बयान फरमाई है और उसे जितना बडा पाप ठहराया है, किसी और धर्म में उसका उदाहरण नहीं मिलता। इस लिये सत्यता यही है कि पडोसी के अधिकारों को इस प्रकार स्वीकार करने से इस्लाम की यह शान बहुत बुलन्द नजर आती है। इस्लाम का दर्जा इस सम्बन्ध में बहुत ऊंचा है। यह शिक्षा इस्लाम धर्म के ताज में एक दमकते हुए मोती के समान है और इसके लि, इस्लाम की जितनी भी प्रशंसा की जा, कम है। ऐ मुस्लिम भाई! रसूले करीम(सल्ल.) के पवित्र जीवन का पवित्र आदर्श आपके लि, पथ-प्रदर्शक दीप के समान है। इस लिए आप लोगों को अन्य धर्मावलम्बियों के लिए एक नमूना बनकर दिखाना चाहिये।
साभारः पुस्तक ‘इस्लामः मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म’ ‘ऐ मुस्लिम भाई!’  लेखक श्री एल के आर चावला ने जो 150 से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं आप लुधियाना के डिप्टी कमिशनर के कार्यालय में सुपरिटेंडेंट थे,

Kalki Avtaar Aur Bhaarti Dharam garanth


हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के आगमन की पूर्व सूचना हमें बाइबिल, तौरेत और अन्य धर्मग्रन्थों में मिलती है, यहाँ तक कि भारतीय धर्मग्रन्थों ( हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म की पुस्तकों ं)में भी आप (सल्ल.) के आने की भविष्यवाणियाँ और पूर्व-सूचनाएं मिलती हैं। --डा. एम. श्रीवास्तव
अल्लाह अत्यंत क्षमााशील और दयावान है। वही सृष्टि का निर्माता है। उसने अपने सर्जित जीवों में इन्सान को श्रेष्ठ और महिष्ठ बनाया है। अल्लाह के सभी उदार अनुग्रहों और उसकी अनुकंपाओं की गणना करनी कठिन है, जो उसने इनसानों पर की है। उसकी इन्सानों पर विशेष कृपा यह रही कि उनके मार्गदर्शक का प्रबंध किया और उन्हें सही रास्ता दिखाने के लिए अपने पैगम्बरों, रसूलों और अवतारों को प्रत्येक कौम और समुदाय में भेजा। कुरआन में हैः ‘‘कोई कौम ऐसी नहीं गुजरी, जिसमें कोई सचेत करने वाला न आया हो।’’ (कुरआन 35/ 24)
‘‘अवतार’’ का अर्थ यह कदापि सही नहीं है कि ईश्वर स्वयं धरती पर सशरीर आता है, बल्कि सच्चाई यह है कि वह अपने पैगम्बर और अवतार भेजता है। उसने इन्सानों के उद्धार, कल्याण और मार्गदर्शन के लिए अपने अवतार पैगम्बर और रसूल भेजे। यह सिलसिला हजरत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर समाप्त कर दिया गया। स्वामी विवेकानन्द और गुरुनानक सरीखे महानुभावों ने भी पैगम्बरी और ईशदूतत्व की धारणा का समर्थन किया है। वरिष्ठ विद्वानों में पं. सुन्दर लाल, श्री बलराम सिंह परिहार, डा. वेद प्रकाश उपाध्याय, डा. पी.एच. चैबे, डा. रमेश प्रसाद गर्ग, 
पं. दुर्गा शंकर सत्यार्थी आदि ने ‘‘अवतार’’ का अर्थ ईश्वर द्वारा मानव-कल्याण के लिए अपने पैगम्बर और दूत भेजा जाना बताया है। प्राणनाथी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध चिंतक श्री कश्मीरी लाल भगत ने भी इस तथ्य का स्पष्ट समर्थन किया है।
हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के आगमन की पूर्व सूचना हमें बाइबिल, तौरेत और अन्य धर्मग्रन्थों में मिलती है, यहाँ तक कि भारतीय धर्मग्रन्थों में भी आप (सल्ल.) के आने की भविष्यवाणियाँ मिलती हैं। हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म की पुस्तकों में इस प्रकार की पूर्व-सूचनाएं मिलती हैं।......
पैगम्बरों और अवतारों के भेजे जाने का विशिष्ट औचित्य होता है। लोगों में अधर्म की प्रवृत्ति पैदा हो जाने,
धर्म के वास्तविक स्वरूप से हट जाने और मूल धर्म में मिलावट हो जाने के कारण पैगम्बर एवं अवतार भेजे गए, जिन्होंने धर्म को फिर से मौलिक रूप में पेश किया और एक ईश्वर की ओर लोगों को बुलाया। हजरत मुहम्मद (सल्ल.) उस समय भेजे गए, जब हजरत ईसा मसीह (अलैहि.) को आए हुए पाँच सौ से अधिक वर्ष बीत चुके थे। नबियों (अलैहि.) की शिक्षाएँ नष्ट अथवा विलुप्त हो चुकी थीं, सनातन धर्म पर अधार्मिकता छा गई थी, ईशभय और ईशपरायणता समाप्त हो चुकी थी। इन्सान अपने पैदा करनेवाले को भूला हुआ था। उसने अनेक ईश्वर (पूज्य) बना डाले और अपनी दशा इतनी पतित कर डाली कि पेड़, पहाड़, आग, पानी, हवा, धरती, चांद, सूरज यहाॅ तक की जानवरों आदि को पूजने में लिप्त हो गया।
इन विकट और विषम परिस्थितियों में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का आगमन हुआ। आप (सल्ल.) ने अल्लाह के पैगम्बर के रूप में महान और अनुपम सद्क्रान्ति कर दिखाई। आप (सल्ल.) कोई नया धर्म लेकर नहीं आए थे, बल्कि मानव जाति के आरंभ से चले आ रहे सनातन धर्म (इस्लाम) में आई खराबियों और विकृतियों को दूर कर उसे मौलिक रूप में पेश किया। आप (सल्ल.) ने इन्सानों को उनकी अस्ल हैसियत बताई और उनकी मिथ्या धारणाओं का उन्मूलन किया। आप (सल्ल.) ने बताया कि इन्सान का ईश्वर केवल एक है, वह निराकार है। इन्सान को उसी की ही दासता अपनानी चाहिए, उसकी ही इबादत करनी चाहिए। यदि वह इस धारणा और भक्ति-कर्म का इन्कार करता है, तो अपने को गलत जगह खड़ा कर लेता है, जिसके कारण उसके कदम गलत दिशा में उठने लगते हैं। ऐसे में भला उसकी जीवन-यात्रा कैसे सफल हो सकती है?
जीवन की सुगम, सार्थक, सफल और फलदाई यात्रा के लिए अल्लाह के अंतिम पैगम्बर और दूत हजरत मुहम्मद (सल्ल.) द्वारा पेश की गई शिक्षाओं को अपनाया जाए एवं आप (सल्ल) के बताए मार्ग पर चला जाए, तभी पारलौकिक जीवन को भी सफल बनाया जा सकता है। अब यह सच्चाई छिपी नहीं रही कि भारतीय धर्मग्रन्थों में जिस अवतार (पैगम्बर) के आने की पूर्व-सूचना दी गई थी, वे हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ही हैं।  अल्लाह हमारी कोशिशों को कबूल फरमाए, आमीन।
डा. एम. ए. श्रीवास्तव
स्थान - नई दिल्ली
अधिक जानकारी के लिये पढें
पुस्तकः नराशंस और अंतिम ऋषि (ऐतिहासकि शोध) 
डा. वेदप्रकाश उपाध्याय
कल्कि अवतार और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) 
डा. वेदप्रकाश उपाध्याय
अवतारवाद और रिसालत- मोहम्मद अहमद
मोहम्मद सल्ल ही क्यो ? - एम नसरूल्लाह (हिन्दी)



Sadbhaav Doot


मैंने जब पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) के बारे में लिखने का इरादा किया तो पहले तो मुझे संकोच हुआ, क्योंकि यह एक ऐसे धर्म के बारे में लिखने का मामला था जिसका मैं अनुयायी नहीं हूँ और यह एक नाज़ुक मामला भी है, क्योंकि दुनिया में विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोग पाए जाते हैं और एक धर्म के अनुयायी भी परस्पर विरोधी मतों (ेबीववस व िजीवनहीज) और फिरकों में बंटे रहते हैं।
(के.एस.रामा कृष्णा राव)  साभार-पुस्तक- इस्लाम के पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल.)

इस्लाम के पैगम्बरःहजरत मुहम्मद (सल्ल.)
मुहम्मद (सल्ल.) का जन्म अरब के रेगिस्तान में  इतिहासकारों के अनुसार 20 अप्रैल 571 ई. में हुआ। ‘मुहम्मद’ (सल्ल.) का अर्थ होता है ‘जिस की अत्यन्त प्रशंसा (सबसे ज़्यादा तारीफ) की गई हो।’ मेरी नजर में आप अरब के सपूतों में महाप्रज्ञ (सबसे ज़्यादा जानने वाले) और सबसे उच्च बुद्धि के व्यक्ति हैं। क्या आपसे पहले और क्या आप के बाद, इस लाल रेतीले अगम रेगिस्तान में जन्मे सभी कवियों और शासकों की अपेक्षा आप का प्रभाव कहीं अधिक व्यापक है। जब आप पैदा हुये अरब उपमहाद्वीप केवल एक सूना रेगिस्तान था। मुहम्मद (सल्ल.) की सशक्त आत्मा ने इस सूने रेगिस्तान से एक नए संसार का निर्माण किया, एक नए जीवन का, एक नई संस्कृति और नई सभ्यता का। आपके द्वारा एक ऐसे नये राज्य की स्थापना हुई, जो मराकश से ले कर इंडीज तक फैला और जिसने तीन महाद्वीपों-एशिया, अफरीका, और यूरोप के विचार और जीवन पर अपना अभूतपूर्व प्रभाव डाला।....
पैगम्बर (सल्ल.) का ऐतिहासिक व्यक्तित्व
मेरे लेख का विषय एक विशेष धर्म के सिद्धान्तों से है। वह धर्म ऐतिहासिक है और उसके पैगम्बर (सल्ल.) का व्यक्तित्व भी ऐतिहासिक है। यहाँ तक कि सर विलियम म्यूर जैसा इस्लाम विरोधी आलोचक भी कुरआन के बारे में कहता है, ‘‘शायद संसार में (कुरआन के अतिरिक्त) कोई अन्य पुस्तक ऐसी नहीं है, जो बारह शताब्दियों तक अपने विशुद्ध मूल के साथ इस प्रकार सुरक्षित हो।’’ यहाॅ मैं इसमें इतना और बढ़ा सकता हूँ कि पैगम्बर मुहम्मद भी एक ऐसे अकेले ऐतिहासिक महापुरुष हैं, जिनके जीवन की एक-एक घटना को बड़ी सावधनी के साथ बिल्कुल शुद्ध रूप में बारीक से बारीक विवरण के साथ आनेवाली नस्लों के लिए सुरक्षित कर लिया गया है। उनका जीवन और उनके कारनामे रहस्य के परदों में छुपे हुए नहीं हैं। उनके बारे में सही-सही जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी को सिर खपाने और भटकने की जरूरत नहीं। सत्य रूपी मोती प्राप्त करने के लिए ढेर सारी रास से भूसा उड़ाकर चन्द दाने प्राप्त करने जैसे कठिन परिश्रम की ज़रूरत नहीं है।
पूर्वकालीन भ्रामक चित्रण
मेरा काम इस लिए और आसान हो गया कि, अब वह समय तेजी से गुजर रहा है, जब कुछ राजनैतिक और इसी प्रकार के दूसरे कारणों से कुछ आलोचक इस्लाम का गलत और बहुत ही भ्रामक चित्रण किया करते थे। प्रोफसर बीबान ‘केम्ब्रिज मेडिवल हिस्ट्री (ब्ंउइतपहक उंकपमअंस ीपेजवतल) में लिखता है- ‘‘इस्लाम और मुहम्मद (सल्ल.) के संबंध में 19वीं सदी के आरम्भ से पूर्व यूरोप में जो पुस्तकें प्रकाशित हुईं उनकी हैसियत केवल साहित्यिक कौतूहलों की रह गई है’’ (परन्तु आज) मेरे लिए पैगम्बर मुहम्मद के जीवन-चित्र के लिखने की समस्या बहुत ही आसान हो गई है, क्योंकि अब हम इस प्रकार के भ्रामक ऐतिहासिक तथ्यों का सहारा लेने के लिए मजबूर नहीं हैं और इस्लाम के संबंध में भ्रामक निरूपणों के स्पष्ट करने में हमारा समय बर्बाद नहीं होता। मिसाल के तौर पर इस्लामी सिद्धान्त और तलवार की बात किसी उल्लेखनीय क्षेत्र में जोरदार अन्दाज में सुनने को नहीं मिलती। इस्लाम का यह सिद्धान्त कि ‘धर्म के मामले में कोई जोर-जबरदस्ती नही’, आज सब पर भली-भाँति विदित है। विश्वविख्यात इतिहासकार गिबन ने कहा है, ‘मुसलमानों के साथ यह गलत धारणा जोड़ दी गई है कि उनका यह कर्तव्य है कि वे हर धर्म का तलवार के जोर से उन्मूलन कर दें।’ इस इतिहासकार ने कहा कि यह जाहिलाना इल्ज़ाम कुरआन से भी पूरे तौर पर खंडित हो जाता है और मुस्लिम विजेताओं के इतिहास तथा ईसाइयों (गैरमुस्लिमों) की पूजा-पाठ के प्रति उनकी ओर से कानूनी और सार्वजनिक उदारता का जो प्रदर्शन हुआ है उससे भी यह इल्ज़ाम तथ्यहीन सिद्ध होता है। पैगम्बर मुहम्मद के जीवन की सफलता का श्रेय तलवार के बजाय उनके असाधारण नैतिक बल को जाता है।
आत्मसंयम एवं अनुशासन
‘‘जो अपने क्रोध पर काबू रखते है।’’ (कुरआन, 3/134)
एक कबीले के मेहमान का ऊँट दूसरे कबीले की चरागाह में गलती से चले जाने की छोटी-सी घटना से उत्तेजित होकर जो अरब चालीस वर्ष तक ऐसे भयानक रूप से लड़ते रहे थे कि दोनों पक्षों के कोई सत्तर हजार आदमी मारे गए, और दोनों कबीलों के पूर्ण विनाश का भय पैदा हो गया था, उस उग्र
क्रोधातुर और लड़ाकू कौम को इस्लाम के पैगम्बर ने आत्मसंयम एवं अनुशासन की ऐसी शिक्षा दी, ऐसा प्रशिक्षण दिया कि वे युद्ध के मैदान में भी नमाज़ अदा करते थे।
प्रतिरक्षात्मक युद्ध
विरोधियों से समझौते और मेल-मिलाप के लिए आपने बार-बार प्रयास किए, लेकिन जब सभी प्रयास बिल्कुल विफल हो गए और हालात ऐसे पैदा हो गए कि आपको केवल अपने बचाव के लिए लड़ाई के मैदान में आना पड़ा तो आपने रणनीति को बिल्कुल ही एक नया रूप दिया। आपके जीवन-काल में जितनी भी लड़ाइयाँ हुईं-यहाँ तक कि पूरा अरब आपके अधिकार-क्षेत्र में आ गया- उन लड़ाइयों में काम आनेवाली इंसानी जानों की संख्या चन्द सौ से अधिक नहीं है। आपने बर्बर अरबों को सर्वशक्तिमान अल्लाह की उपासना यानी नमाज की शिक्षा दी, अकेले-अकेले अदा करने की नहीं, बल्कि सामूहिक रूप से अदा करने की, यहाँ तक कि युद्ध-विभीषिका के दौरान भी। नमाज का निश्चित समय आने पर- और यह दिन में पाँच बार आता है- सामूहिक नमाज (नमाज जमाअत के साथ) का परित्याग करना तो दूर उसे स्थगित भी नहीं किया जा सकता। एक समूह अपने खुदा के आगे सिर झुकाने में, जबकि दूसरा शत्रु से जूझने में व्यस्त रहता। तब पहला समूह नमाज अदा कर चुकता तो वह दूसरे का स्थन ले लेता और दूसरा समूह खुदा के सामने झुक जाता।
युद्ध क्षेत्र में भी मानव-मूल्यों का सम्मान
बर्बरता के युग में मानवता का विस्तार रणभूमि तक किया गया। कड़े आदेश दिए गए कि न तो लाशों के अंग-भंग किए जाए और न किसी को धोखा दिया जाए और न विश्वासघात किया जाए और न गबन किया जाए और न बच्चों, औरतों या बूढ़ों को कत्ल किया जाए, और न खजूरों और दूसरे फलदार पेड़ों को काटा या जलाया जाए और न संसार-त्यागी सन्तों और उन लोगों को छेड़ा जाए जो इबादत में लगे हों। अपने कट्टर से कट्टर दुश्मनों के साथ खुद पैगम्बर साहब का व्यवहार आपके अनुयायियों के लिये एक उत्तम आदर्श था। मक्का पर अपनी विजय के समय आप अपनी अधिकार - शक्ति की पराकाष्ठा पर आसीन थे। वह नगर जिसने आपको और आपके साथियों को सताया और तकलीफें दीं, जिसने आपको और आपके साथियों को देश निकाला दिया और जिसने आपको बुरी तरह सताया और बायकाट किया, हालाँकि आप दो सौ मील से अधिक दूरी पर पनाह लिए हुए थे, वह नगर आज आपके कदमों में पड़ा है। युद्ध के नियमों के अनुसार आप और आपके साथियों के साथ क्रूरता का जो व्यवहार किया उसका बदला लेने का आपको पूरा हक हासिल था। लेकिन आपने इस नगरवालों के साथ कैसा व्यवहार किया? हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का हृदय प्रेम और करूणा से छलक पड़ा। आप ने एलान किया--- ‘‘आज तुम पर कोई इलज़ाम नहीं और तुम सब आज़ाद हो।’’
कट्टर शत्रुओं को भी क्षमादान
आत्म-रक्षा में युद्ध की अनुमति देने के मुख्य लक्ष्यों में से एक यह भी था कि मानव को एकता के सूत्र में पिरोया जाए। अतः अब यह लक्ष्य पूरा हो गया तो बदतरीन दुश्मनों को भी माफ कर दिया गया। यहाँ तक कि उन लोगों को भी माफ कर दिया गया, जिन्होंने आपके चहेते चचा को कत्ल करके उनके शव को विकृत किया (नाक, कान काट लिया) और पेट चीरकर कलेजा निकालकर चबाया।
सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देनेवाले ईशदूत
सार्वभौमिक भाईचारे का नियम और मानव-समानता का सिद्धान्त, जिसका एलान आपने किया, वह उस महान योगदान का परिचायक है जो हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने मानवता के सामाजिक उत्थान के लिए दिया। यों तो सभी बड़े धर्मों ने एक ही सिद्धान्त का प्रचार किया है, लेकिन इस्लाम के पैगम्बर ने सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देकर पेश किया। इस योगदान का मूल्य शायद उस समय पूरी तरह स्वीकार किया जा सकेगा, जब अंतर्राष्ट्रीय चेतना जाग जाएगी, जातिगत पक्षपात और पूर्वाग्रह पूरी तरह मिट जाएँगे और मानव भाईचारे की एक मज़बूत धारणा वास्तविकता बनकर सामने आएगी।
खुदा के समक्ष रंक और राजा सब एक समान
इस्लाम के इस पहलू पर विचार व्यक्त करते हुए सरोजनी नायडू कहती हैं- ‘‘यह पहला धर्म था जिसने जम्हूरियत (लोकतंत्र) की शिक्षा दी और उसे एक व्यावहारिक रूप दिया। क्योंकि जब मीनारों से अजान दी जाती है और इबादत करने वाले मस्जिदों में जमा होते हैं तो इस्लाम की जम्हूरियत (जनतंत्र) एक दिन में पाँच बार साकार होती है, ‘अल्लाहु अकबर’ यानी ‘‘ अल्लाह ही बड़ा है।’’ भारत की महान कवियत्री अपनी बात जारी रखते हुए कहती हैं-‘‘मैं इस्लाम की इस अविभाज्य एकता को देख कर बहुत प्रभावित हुई हूँ, जो लोगों को सहज रूप में एक-दूसरे का भाई बना देती है। जब आप एक मिस्री, एक अलजीरियाई, एक हिन्दूस्तानी और एक तुर्क (मुसलमान) से लंदन में मिलते हैं तो आप महसूस करेंगे कि उनकी निगाह में इस चीज का कोई महत्त्व नहीं है कि एक का संबंध मिस्र से है और एक का वतन हिन्दुस्तान आदि है।’’

इंसानी भाईचारा और इस्लाम
महात्मा गाँधी अपनी अद्भूत शैली में कहते हैं- ‘‘कहा जाता है कि यूरोप वाले दक्षिण अफ्रीका में इस्लाम के प्रसार से भयभीत हैं, उस इस्लाम से जिसने स्पेन को सभ्य बनाया, उस इस्लाम से जिसने मराकश तक रोशनी पहुँचाई और संसार को भाईचारे की इंजील पढ़ाई। दक्षिण अफ्रीका के यूरोपियन इस्लाम के फैलाव से बस इसलिए भयभीत हैं कि उनके अनुयायी गोरों के साथ कहीं समानता की माँग न कर बैठें। अगर ऐसा है तो उनका डरना ठीक ही है। यदि भाईचारा एक पाप है, यदि काली नस्लों की गोरों से बराबरी ही वह चीज है, जिससे वे डर रहे हैं, तो फिर (इस्लाम के प्रसार से) उनके डरने का कारण भी समझ में आ जाता है।’’
हज मानव-समानता का एक जीवन्त प्रमाण
दुनिया हर साल हज के मौके पर रंग, नस्ल और जाति आदि के भेदभाव से मुक्त इस्लाम के चमत्कारपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय भव्य प्रदर्शन को देखती है। यूरोपवासी ही नहीं, बल्कि अफ्रीकी, फारसी, भारतीय, चीनी आदि सभी मक्का में एक ही दिव्य परिवार के सदस्यों के रूप में एकत्र होते हैं, सभी का लिबास एक जैसा होता है। हर आदमी बिना सिली दो सफेद चादरों में होता है, एक कमर पर बंधी होती है तथा दूसरी कंधों पर पड़ी हुई। सब के सिर खुले हुए होते हैं। किसी दिखावे या बनावट का प्रदर्शन नहीं होता। लोगों की जुबान पर ये शब्द होते हैं-‘‘मैं हाजिर हूँ, ऐ खुदा मैं तेरी आज्ञा के पालन के लिए हाजिर हूँ, तू एक है और तेरा कोई शरीक नहीं।’’ स्ंइइंपा ।ससंीनउउं स्ंइइंपाण् स्ंइइंपाए स्ं ैींतममा स्ंांए स्ंइइंपाण् प्ददंस भ्ंउकंीए ॅंद छमउंजंीए स्ंां ूंस डनसाए स्ं ैींतममा स्ंां स्ंइइंपाण्
भ्मतम प् ंउ ंज ज्ील ेमतअपबम व् स्वतकए ीमतम प् ंउण् भ्मतम प् ंउ ंज ज्ील ेमतअपबम ंदक ज्ीवन ींेज दव चंतजदमतेण् ज्ीपदम ंसवदम पे ।सस च्तंपेम ंदक ।सस ठवनदजलए ंदक ज्ीपदम ंसवदम पे ज्ीम ैवअमतमपहदजलण् ज्ीवन ींेज दव चंतजदमतेए ीमतम प् ंउण् इस प्रकार कोई ऐसी चीज बाकी नहीं रहती, जिसके कारण किसी को बड़ा कहा जाए, किसी को छोटा। और हर हाजी इस्लाम के अन्तर्राष्ट्रीय महत्व का प्रभाव लिए घर वापस लौटता है। प्रोफसर हर्गरोन्ज (भ्नतहतवदरम) के शब्दों में- ‘‘पैगम्बरे-इस्लाम द्वारा स्थापित राष्ट्रसंघ ने अन्तर्राष्ट्रीय एकता और मानव भ्रातृत्व के नियमों को ऐसे सार्वभौमिक आधारों पर स्थापित किया है जो अन्य राष्ट्रों को मार्ग दिखाते रहेंगे।’’ वह आगे लिखता है- ‘‘वास्तविकता यह है कि राष्ट्रसंघ की धारणा को वास्तविक रूप देने के लिए इस्लाम का जो कारनामा है, कोई भी अन्य राष्ट्र उसकी मिसाल पेश नहीं कर सकता।’’
इस्लाम सम्पूर्ण संसार के लिए एक प्रकाशस्तंभ
इस्लाम के पैगम्बर ने लोकतान्त्रिक शासन-प्रणाली को उसके उत्कृष्टतम रूप में स्थापित किया। खलीफा उमर (रजि़) और खलीफा अली (रजि़)  (पैगमम्बर इस्लाम के दामाद), खलीफा मन्सूर, अब्बास (खलीफा मामून के बेटे) और कई दूसरे खलीफा और मुस्लिम सुल्तानों को एक साधारण व्यक्ति की तरह इस्लामी अदालतों में जज के सामने पेश होना पड़ा। हम सब जानते हैं कि काले नीग्रो लोगों के साथ आज भी ‘सभ्य!’ सफेद रंगवाले कैसा व्यवहार करते है? फिर आप आज से चैदह शताब्दी पूर्व इस्लाम के पैगम्बर के समय के काले नीग्रो (बिलाल रजि़) के बारे में अन्दाज़ा कीजिए। इस्लाम के आरम्भिक काल में नमाज के लिए अज़ान देने की सेवा को अत्यन्त आदरणीय व सम्मानजनक पद समझा जाता था और यह आदर इस गुलाम नीग्रो (बिलाल रजि़) को प्रदान किया गया था। मक्का पर विजय के बाद उनको हुक्म दिया गया कि नमाज के लिए अजान दें और यह काले रंग और मोटे होंठों वाला नीग्रो  (बिलाल रजि़) गुलाम इस्लामी जगत् के सब से पवित्र और ऐतिहासिक भवन, पवित्र काबा की छत पर अजान देने के लिए चढ़ गया। उस समय कुछ अभिमानी अरब चिल्ला् उठे, ‘‘आह, बुरा हो इसका, यह काला हब्शी (बिलाल रजि़) अज़ान के लिए पवित्र काबा की छत पर चढ़ गया है।’’ शायद यही नस्ली गर्व और पूर्वाग्रह था जिसके जवाब में आप(सल्ल.) ने एक भाषण (खुत्बा) दिया। वास्तव में इन दोनों चीजों को जड़-बुनियाद से खत्म करना आपके लक्ष्य में से था। अपने भाषण में आपने फरमाया- ‘‘सारी प्रशंसा और शुक्र अल्लाह के लिए है, जिसने हमें अज्ञानकाल के अभिमान और अन्य बुराइयों से छुटकारा दिया। ऐ लोगो, याद रखो कि सारी मानव-जाति केवल दो श्रेणियों में बँटी हैः एक
धर्मनिष्ठ अल्लाह से डरने वाले लोग जो कि अल्लाह की दृष्टि में सम्मानित हैं। दूसरे उल्लंघनकारी, अत्याचारी, अपराधी और कठोर हृदय लोग हैं जो खुदा की निगाह में गिरे हुए और तिरस्कृत हैं। अन्यथा सभी लोग एक आदम की औलाद हैं और अल्लाह ने आदम को मिट्टी से पैदा किया था।’’ इसी की पुष्टि कुरआन में इन शब्दों में की गई है-‘‘ऐ लोगो ! हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और तुम्हारी विभिन्न जातियाँ और वंश बनाए ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो, निस्सन्देह अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे अधिक सम्मानित वह है जो (अल्लाह से) सबसे ज्यादा डरनेवाला है। निस्सन्देह अल्लाह खूब जाननेवाला और पूरी तरह खबर रखनेवाला है।’’ (कुरआन,49/13)
महान परिवर्तन
इस प्रकार पैगम्बरे - इस्लाम हृदयो में ऐसा ज़बरदस्त परिवर्तन करने में सफल हो गए कि सबसे पवित्र और सम्मानित समझे जानेवाले अरब खानदानों के लोगों ने भी इस नीग्रो गुलाम (बिलाल रजि़) की जीवन - संगिनी बनाने के लिए अपनी बेटियों से विवाह करने का प्रस्ताव किया। इस्लाम के दूसरे खलीफा और मुसलमानों के अमीर (सरदार) जो इतिहास में उमर (रजि़) महान (फारूके आज़म) के नाम से प्रसिद्ध हैं, इस नीग्रो को देखते ही तुरन्त खड़े हो जाते और इन शब्दों में उनका स्वागत करते, ‘‘हमारे बड़े, हमारे सरदार आ गए।’’ धरती पर उस समय की सबसे अधिक स्वाभिमानी कौम, अरबों में कुरआन और पैगम्बर मुहम्मद ने कितना महान परिवर्तन कर दिया था। यही कारण है कि जर्मनी के एक बहुत बड़े कवि - शायर गोयटे ने पवित्र कुरआन के बारे में अपने उद्गार प्रकट करते हुए एलान किया है-‘‘यह पुस्तक हर युग में लोगों पर अपना अत्यधिक प्रभाव डालती रहेगी।’’ इसी कारण जार्ज बर्नाड शा का भी कहना है- ‘‘अगर अगले सौ सालों में इंग्लैंड ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप पर किसी धर्म के शासन करने की संभावना है तो वह इस्लाम है।’’
इस्लाम नारी-उद्धारक
इस्लाम की यह लोकतांत्रिक विशेषता ही है कि, उसने स्त्री को पुरुष की दासता से आजादी दिलाई। सर चाल्र्स ई.ए. हेमिल्टन ने कहा है- ‘‘इस्लाम की शिक्षा यह है कि मानव अपने स्वभाव की दृष्टि से बेगुनाह है। वह सिखाता है कि स्त्री और पुरुष दोनों एक ही तत्व से पैदा हुए, दोनों में एक ही आत्मा है और दोनों में इसकी समान रूप से क्षमता पाई जाती कि वे मानसिक, आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टि से उन्नति कर सकें।’’
स्त्रियों को सम्पत्ति रखने का अधिकार
अरबों में यह परम्परा सुदृढ़ रूप से पाई जाती थी कि,  विरासत का अधिकारी तन्हा वही हो सकता जो बरछा और तलवार चलाने में सिद्धहस्त हो। लेकिन इस्लाम अबला का रक्षक बनकर आया और उसने औरत को पैतृक विरासत में हिस्सेदार बनाया। उसने औरतों को आज से सदियों पहले सम्पत्ति में मिल्कियत का अधिकार दिया। उसके कहीं बारह सदियों बाद 1881ई. में उस इंग्लैंड ने, जो लोकतंत्र का गहवारा समझा जाता है, इस्लाम के इस सिद्धान्त को अपनाया और उसके लिए ‘दि मैरीड वीमन्स एक्ट’ (विवाहित स्त्रियों का अधिनियम) नामक कानून पास हुआ। लेकिन इस घटना से बारह सदी पहले पैगम्बरे-इस्लाम यह घोषणा कर चुके थे- ‘‘औरत-मर्द युग्म में औरतें मर्दों का दूसरा हिस्सा हैं। औरतों के अधिकार का आदर होना चाहिए।’’
‘‘इस का ध्यान रहे कि औरतें अपने निश्चित अधिकार प्राप्त कर पा रही हैं (या नहीं)।’’  (अल-अमीन)
सुनहरे साधन
प्रोफसर मेसिंगनन के अनुसार ‘इस्लाम दो प्रतिकूल अतिशयों के बीच सन्तुलन (मध्य मार्ग) स्थापित करता है और चरित्र-निर्माण का, जो कि सभ्यता की बुनियाद है, सदैव ध्यान में रखता है।’ इस उद्देश्य को प्राप्त करने और समाज-विरोधी तत्वों पर काबू पाने के लिए इस्लाम अपने विरासत के कानून और संगठित एवं अनिवार्य ज़कात की व्यवस्था से काम लेता है। और एकाधिकार (इजारादारी), सूदखोरी, अप्राप्त आमदनियों व लाभों को पहले ही निश्चित कर लेने, मंडियों पर कब्जा कर लेने, जखीरा अन्दोजी ;भ्वंतकपदहद्ध बाजार का सारा सामान खरीदकर कीमतें बढ़ाने के लिए कृत्रिम अभाव पैदा करना, इन सब कामों को इस्लाम ने अवैध घोषित किया है। इस्लाम में जुआ भी अवैध है। जबकि शिक्षा-संस्थाओं, इबादतगाहों तथा चिकित्सालयों की सहायता करने, कुएँ खोदने, यतीमखाने स्थापित करने को पुण्यतम काम घोषित किया । कहा जाता है कि यतीमखानों की स्थापना का आरम्भ पैगम्बरे-इस्लाम की शिक्षा से ही हुआ। आज का संसार अपने यतीमखानों की स्थापना के लिए उसी पैगम्बर का आभारी है, जो कि खुद यतीम था। कारलायल पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) के बारे में अपने उद्गाार प्रकट करते हुए कहता है-‘‘ ये सब भलाईयाँ बताती हैं कि प्रकृति की गोद में पले-बढ़े मरुस्थलीय पुत्र के हृदय में, मानवता, दया और समता के भाव का नैसर्गिक वास था।’’

 एक इतिहासकार का कथन है कि किसी महान व्यक्ति की परख तीन बातों से की जा सकती है-
1.क्या उसके समकालीन लोगों ने उसे साहसी, तेजस्वी और सच्चे आचरण का पाया?
2. क्या उसने अपने युग के स्तरों से ऊँचा उठने में उल्लेखनीय महानता का परिचय दिया?
3. क्या उसने सामान्यतः पूरे संसार के लिए अपने पीछे कोई स्थाई धरोहर छोड़ी?
  इस सूची को और लम्बा किया जा सकता है, लेकिन जहाँ तक पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.)  का संबंध है वे जाँच की इन तीनों कसौटियों पर पूर्णतः खरे उतरते हैं। अन्तिम दो बातों के संबंध में कुछ प्रमाणों का पहले ही उल्लेख किया जा चुका है। इन तीन कसौटियों में पहली है, क्या पैगम्बरे- इस्लाम को आपके समकालीन लोगों ने तेजस्वी, साहसी और सच्चे आचरण वाला पाया था ?
बेदाग आचरण
ऐतिहासिक दस्तावेज साक्षी हैं कि, क्या दोस्त, क्या दुश्मन, हजरत मुहम्मद के सभी समकालीन लोगों ने जीवन के सभी मामलों व सभी क्षेत्रों में पैगम्बरे-इस्लाम के उत्कृष्ट गुणों, आपकी बेदाग ईमानदारी, आपके महान नैतिक सद्गुणों तथा आपकी अबेाध निश्छलता और हर संदेह से मुक्त आपकी विश्वसनीयता को स्वीकार किया है। यहाँ तक कि यहूदी और वे लोग जिनको आपके संदेश (अल्लाह का कोई साझीदार नहीं) पर विश्वास नहीं था, वे भी आपको अपने झगड़ों में पंच या मध्यस्थ बनाते थे, क्योंकि उन्हें आपकी निरपेक्षता पर पूरा यकीन था। वे लोग भी जो आपके संदेश पर ईमान नहीं रखते थे, यह कहने पर विवश थे- ‘‘ऐ मुहम्मद, हम तुमको झूठा नहीं कहते, बल्कि उसका इंकार करते हैं जिसने तुमको किताब दी तथा जिसने तुम्हें रसूल बनाया।’’ वे समझते थे कि आप पर किसी (जिन्न आदि) का असर है। जिससे मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने आप पर सख्ती भी की। लेकिन उनमें जो बेहतरीन लोग थे, उन्होंने देखा कि आपके ऊपर एक नई ज्योति अवतरित हुई है और वे उस ज्ञान को पाने के लिए दौड़ पड़े। पैगम्बरे-इस्लाम की जीवनगाथा की यह विशिष्टता उल्लेखनीय है कि आपके निकटतम रिश्तेदार, आपके प्रिय चचेरे भाई, आपके घनिष्ट मित्र, जो आप को बहुत निकट से जानते थे, उन्होंने आपके पैगाम की सच्चाई को दिल से माना और इसी प्रकार आपकी पैगम्बरी की सत्यता को भी स्वीकार किया। पैगम्बर मुहम्मद पर ईमान ले आने वाले ये कुलीन शिक्षित एवं बुद्धिमान स्त्रियाँ और पुरुष आपके व्यक्तिगत जीवन से भली-भाँति परिचित थे। वे आपके व्यक्तित्व में अगर धोखेबाजी और फ्राड की जरा-सी झलक भी देख पाते या आपमें धनलोलुपता देखते या आपमें आत्म विश्वास की कमी पाते तो आपके चरित्र-निर्माण, आत्मिक जागृति तथा समाजोद्धार की सारी आशाएं ध्वस्त होकर रह जातीं। इसके विपरीत हम देखते हैं कि अनुयायियों की निष्ठा और आपके प्रति उनके समर्थन का यह हाल था कि, उन्होंने स्वेच्छा से अपना जीवन आपको समर्पित करके आपका नेतृत्व स्वीकार कर लिया। उन्होंने आपके लिए यातनाओं और खतरों को वीरता और साहस के साथ झेला, आप पर ईमान लाए, आपका विश्वास किया, आपकी आज्ञाओं का पालन किया और आपका हार्दिक सम्मान किया और यह सब कुछ उन्होंने दिल दहला देनेवाली यातनाओं के बावजूद किया तथा सामाजिक बहिष्कार से उत्पन्न घोर मानसिक वेदना को शान्तिपूर्वक सहन किया। यहाँ तक कि इसके लिए उन्होने मौत तक की परवाह नहीं की।
पैगम्बर (सल्ल.) से अमर प्रेम
आरम्भिक काल के इस्लाम स्वीकार करनेवालों के ऐतिहासिक किस्से पढि़ए तो इन बेकसूर मर्दों और औरतों पर ढाए गए गैर इंसानी अत्याचारों को देखकर कौन-सा दिल है जो रो न पड़ेगा? एक मासूम औरत सुमैयया (रजि़)  को बेरहमी के साथ बरछे मार-मार कर हलाक कर डाला गया (इस्लाम की राह में पहली शहादत है)। एक मिसाल यासिर (रजि़) की भी है, जिनकी टांगों को दो ऊॅटों से बाँध दिया गया और फिर उन ऊँटों को विपरीत दिशा में हाँका गया। खब्बाब बिन अरत (रजि़) को धधकते हुए कोयलों पर लिटाकर निर्दयी ज़ालिम उनके सीने पर खड़ा हो गया, ताकि वे हिल-डुल न सकें, यहाँ तक कि उनकी खाल जल गई और चर्बी पिघलकर निकल पड़ी। और खब्बाब बिन अरत के गोश्त को निर्ममता से नोच-नोचकर तथा उनके अंग काट-काटकर उनकी हत्या की गई। इन यातनाओं के दौरान उनसे पूछा गया कि क्या अब वे यह न चाहेंगे कि उनकी जगह पर पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल) होते? (जो कि उस वक्त अपने घरवालों के साथ अपने घर में थे) तो पीडि़त खब्बाब ने ऊँचे स्वर में कहा कि पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल) को एक कांटा चुभने की मामूली तकलीफ से बचाने के लिए भी वे अपनी जान, अपने बच्चों एवं परिवार, अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार हैं। इस तरह के दिल दहलानेवाले बहुत-से वाकए पेश किए जा सकते हैं, लेकिन ये सब घटनाएँ आखिर क्या सिद्ध करती हैं? ऐसा कैसे हो सका कि इस्लाम के इन बेटे और बेटियों ने अपने पैगम्बर के प्रति केवल निष्ठा ही नहीं दिखाई, बल्कि उन्होंने अपने शरीर, हृदय और आत्मा का नज़राना पेश किया? पैगम्बर मुहम्मद के प्रति उनके निकटतम अनुयायियों की यह दृढ़ आस्था और विश्वास, क्या उस कार्य के प्रति, जो पैगम्बर मुहम्मद के सुपुर्द किया गया था, उनकी ईमानदारी, निष्पक्षता तथा तन्मयता का अत्यन्त उत्तम प्रमाण नहीं है?
उच्च सामर्थ्य्वान अनुयायी
ध्यान रहे कि ये लोग न तो निचले दर्जे के लोग थे और न कम अक्लवाले। आपके मिशन के आरम्भिक काल में जो लोग आपके चारों ओर जमा हुए वे मक्का के श्रेष्ठतम लोग थे, उसके फूल और मक्खन, ऊँचे दर्जे के, धनी और सभ्य लोग थे। इनमें आपके खानदान और परिवार के करीबी लोग भी थे जो आपकी अन्दरूनी और बाहरी जिन्दगी से भली- भाँति परिचित थे। आरम्भ के चारों खलीफा भी, जो कि महान व्यक्तित्व के मालिक हुए, इस्लाम के आरम्भिक काल ही में इस्लाम में दाखिल हुए।
‘इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ में उल्लिखित है-
‘‘समस्त पैगम्बरों और धर्मिक क्षेत्र के महान व्यक्तित्वों में मुहम्मद सबसे ज्यादा सफल हुए हैं।’’ लेकिन यह सफलता कोई आकस्मिक चीज न थी। न ऐसा है कि, यह आसमान से अचानक आ गिरी हो, बल्कि यह उस वास्तविकता का फल थी कि आपके समकालीन लोगों ने आपके व्यक्तित्व को साहसी और निष्कपट पाया। यह आपके प्रशंसनीय और अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्तित्व का फल था। (अस-सादिक)
मानव-जीवन के लिए उत्कृष्ट नमूना पैगम्बर मुहम्मद के व्यक्तित्व की सभी यथार्थताओं को जान लेना बड़ा कठिन काम है। मैं तो उसकी बस कुछ झलकियाँ ही देख सका हूँ। आपके व्यक्तित्व के कैसे-कैसे मनभावन दृश्य निरन्तर प्रभाव के साथ सामने आते हैं। पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल) कई हैसियत से हमारे सामने आते है- मुहम्मद-पैगम्बर, मुहम्मद-जनरल, मुहम्मद-शासक, मुहम्मद-योद्धा, मुहम्मद-व्यापारी, मुहम्मद-उपदेशक, मुहम्मद-दार्शनिक, मुहम्मद-राजनीतिज्ञ, मुहम्मद-वक्ता, मुहम्मद-समाज सुधारक, मुहम्मद-यतीमों के पोषक, मुहम्मद-गुलामों के रक्षक, मुहम्मद-स्त्री वर्ग का उद्धार करने वाले और उनको बन्धनों से मुक्त कराने वाले, मुहम्मद-न्याय करने वाले, मुहम्मद -सन्त। इन सभी महत्वपूर्ण भूमिकाओं और मानव-कार्य के क्षेत्रों में आपकी हैसियत समान रूप से एक महान नायक की है।  अनाथ अवस्था अत्यन्त बेचारगी और असहाय स्थिति का दूसरा नाम है और इस संसार में आपके जीवन का आरम्भ इसी स्थिति से हुआ। राजसत्ता इस संसार में भौतिक शक्ति की चरम सीमा होती है। और आप शक्ति की यह चरम सीमा प्राप्त करके दुनिया से विदा हुए। आपके जीवन का आरम्भ एक यतीम बच्चे के रूप में होता है, फिर हम आपको एक सताए हुए मुहाजिर (शरणार्थी) के रूप में पाते हैं और आखिर में हम यह देखते हैं कि आप एक पूरी कौम के दुनियावी और रूहानी पेशवा और उसकी किस्मत के मालिक हो गए हैं। आपके इस मार्ग में जिन आज़माइशों, प्रलोभनों, कठिनाइयों और परिवर्तनों, अन्धेरों और उजालों, भय और सम्मान, हालात के उतार-चढ़ाव आदि से गुजरना पड़ा, उन सब में आप सफल रहे। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आपने एक आदर्श पुरुष की भूमिका निभाई। उसके लिए आपने दुनिया से लोहा लिया और पूर्ण रूप से विजयी हुए। आपके कारनामों का संबंध जीवन के किसी एक पहलू से नहीं है, बल्कि वे जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त है।
मुहम्मदः महानतम व्यक्तित्व
उदाहरण स्वरूप अगर महानता इस पर निर्भर करती है कि किसी ऐसी जाति का सुधार किया जाए जो सर्वथा बर्बरता और असभ्यता में ग्रस्त हो और नैतिक दृष्टि से वह अत्यन्त अन्धकार में डूबी हुई हो तो वह शक्तिशाली व्यक्ति हजरत मुहम्मद हैं, जिसने अत्यन्त पस्ती में गिरी हुई कौम को ऊँचा उठाया, उसे सभ्यता से सुसज्जित करके कुछ से कुछ कर दिया। उन्होने उसे दुनिया में ज्ञान और सभ्यता का प्रकाश फैलाने वाली बना दिया। इस तरह आपका महान होना पूर्ण रूप से सिद्ध होता है। यदि महानता इसमें है कि, किसी समाज के परस्पर विरोधी और बिखरे हुए तत्वों को भाईचारे और दयाभाव के सूत्रों में बाँध दिया जाए तो मरुस्थल में जन्मे पैगम्बर निःसंदेह इस विशिष्टता और प्रतिष्ठा के पात्र हैं। यदि महानता उन लोगों का
सुधार करने में है जो अन्धविश्वासों तथा अनेक प्रकार की हानिकारक प्रथाओं और आदतों में ग्रस्त हों तो पैगम्बरे-इस्लाम ने लाखों लोगों को (धर्म के नाम पर फैले) अन्धविश्वासों और बेबुनियाद भय से मुक्त किया। अगर महानता उच्च आचरण पर आधारित होती है तो शत्रुओं और मित्रों दोनों ने मुहम्मद साहब को ‘‘अल -अमीन’’ और ‘‘अस -सादिक’’ अर्थात ‘विश्वसनीय’ और ‘सत्यवादी’ स्वीकार किया है। अगर एक विजेता महानता का पात्र है तो आप एक ऐसे व्यक्ति हैं जो अनाथ और असहाय और
साधारण व्याक्ति की स्थिति से उभरे और खुसरो और कैसर की तरह अरब उपमहाद्वीप के स्वतंत्र शासक बने। आपने एक ऐसा महान राज्य स्थापित किया जो चैदह सदियों की लम्बी मुद्दत गुजरने के बावजूद आज भी मौजूद है और अगर महानता का पैमाना वह समर्पण है जो किसी नायक को उसके अनुयायियों से प्राप्त होता है तो आज भी सारे संसार में फैली अरबों (लगभग 350 करोड़) आत्माओं को मुहम्मद का नाम जादू की तरह सम्मोेहित करता है।
निरक्षर ईशदूत
हजरत मुहम्मद ने एथेन्स, रोम, ईरान, भारत या चीन के ज्ञान-केन्द्रों से दर्शन का ज्ञान प्राप्त नहीं किया था, लेकिन आपने मानवता को चिरस्थायी महत्व की उच्चतम सच्चाइयों से परिचित कराया। वे निरक्षर थे, लेकिन उनको ऐसे भाव पूर्ण और उत्साहपूर्ण भाषण करने की योग्यता प्राप्त थी कि लोग भाव-विभोर हो उठते और उनकी आँखों से आँसू फूट पड़ते। वे अनाथ थे और धनहीन भी, लेकिन जन-जन के हृदय में उनके प्रति प्रेम भाव था। उन्होंने किसी सैन्य अकादमी से शिक्षा ग्रहण नही की थी, लेकिन फिर भी उन्होंने भयंकर कठिनाइयों और रुकावटों के बावजूद सैन्य शक्ति जुटाई (ऐसी सैन्य शक्ति जिसमें का कोई भी ब्यक्ति वेतन भत्ता नहीं लेता था बल्कि अपना ही धन अनाज इत्यादि लोगों पर खर्च करता था) और अपनी आत्म शक्ति के बल पर, जिसमें आप अग्रणी थे, कितनी ही विजय प्राप्त कीं। कुशलतापूर्ण धर्म-प्रचार करनेवाले ईश्वर प्रदत्त योग्यताओं के लोग कम ही मिलते हैं। डेकार्ड के अनुसार, ‘‘आदर्श उपदेशक संसार के दुर्लभतम प्राणियों में से है।’’ हिटलर ने भी अपनी पुस्तक ष्डमपद ज्ञंउचष् (मेरी जीवनगाथा) में इसी तरह का विचार व्यक्त किया है। वह लिखता है -‘‘महान सिद्धान्तशास्त्री कभी-कभार ही महान नेता होता है। इसके विपरीत एक आन्दोलनकारी व्यक्ति में नेतृत्व की योग्यताएँ अधिक होती हैं। वह हमेशा एक बेहतर नेता होगा, क्योंकि नेतृत्व का अर्थ होता है, अवाम को प्रभावित एवं संचालित करने की क्षमता। जन-नेतृत्व की क्षमता का नया विचार देने की योग्यता से कोई सम्बंध नहीं है।’’ लेकिन वह आगे कहता है-‘‘इस धरती पर एक ही व्यक्ति सिद्धांतशास्त्री भी हो, संयोजक भी हो और नेता भी, यह दुर्लभ है। किन्तु महानता इसी में निहित है।’’ पैगम्बरे-इस्लाम मुहम्मद के व्यक्तित्व में संसार ने इस दुर्लभतम उपलब्धि को सजीव एवं साकार देखा है। इससे अधिक विस्मयकारी है वह टिप्पणी, जो बास्वर्थ स्मिथ ने की है- ‘‘वे (मोहम्म्द सल्ल.) जैसे सांसारिक राजसत्ता के प्रमुख थे, वैसे ही दीनी पेशवा भी थे। मानो पोप और कैसर दोनों का व्यक्तित्व उन अकेले में एकीभूत हो गया था। वे सीजर (बादशाह) भी थे पोप (धर्मगुरु) भी। वे पोप थे किन्तु पोप के आडम्बर से मुक्त। और वे ऐसे कैसर थे, जिनके पास राजसी ठाट-बाट, आगे-पीछे अंगरक्षक और राजमहल न थे,।
राजस्व-प्राप्ति की विशिष्ट व्यवस्था
यदि कोई व्यक्ति यह कहने का अधिकारी है कि उसने दैवी अधिकार से राज किया तो वे मुहम्मद (सल्ल) ही हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें बाह्य साधनों और सहायक चीजों के बिना ही राज करने की शक्ति प्राप्त थी। आपको इसकी परवाह नहीं थी कि जो शक्ति आपको प्राप्त थी उसके प्रदर्शन के लिए कोई आयोजन करें। आपके निजी जीवन में जो सादगी थी, वही सादगी आपके सार्वजनिक जीवन में भी पाई जाती थी।’’
मुहम्मद (सल्ल.) अपना काम स्वयं करने वाले
     मक्का पर विजय के बाद 10 लाख वर्ग मील से अधिक जमीन हजरत मुहम्मद के कदमों तले थी। आप पूरे अरब के मालिक थे, लेकिन फिर भी आप मोटे-झोटे वस्त्र पहनते, वस्त्रों और जूतों की मरम्मत स्वयं करते, बकरियाँ दुहते, घर में झाडू लगाते, आग जलाते और घर-परिवार का छोटे-से-छोटा काम भी खुद कर लेते। इस्लाम के पैगम्बर के जीवन के आखिरी दिनों में पूरा मदीना धनवान हो चुका था। हर जगह दौलत की बहुतात थी, लेकिन इसके बावजूद ‘अरब के इस सम्राट’ के घर के चूल्हे में कई-कई हफ्ते तक आग न जलती थी और खजूरों और पानी पर गुजारा होता था। आपके घरवालों की लगातार कई-कई रातें भूखे पेट गुजर जातीं, क्योंकि उनके पास शाम को खाने के लिए कुछ भी न होता। तमाम दिन व्यस्त रहने के बाद रात को आप नर्म बिस्तर पर नहीं, खजूर की चटाई पर सोते। अकसर ऐसा होता कि आपकी आँखों से आँसू बह रहे होते और आप अपने स्रष्टा (अल्लाह) से दुआएँ कर रहे होते कि वह आपको ऐसी शक्ति दे कि आप अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकें। रिवायतों से मालूम होता है कि रोते-रोते आपकी आवाज रुँध जाती थी और ऐसा लगता जैसे कोई बर्तन आग पर रखा हुआ हो और उसमें पानी उबलने लगा हो । आपके देहान्त के दिन आपकी कुल पूँजी कुछ थोड़े से सिक्के थे, जिनका एक भाग कर्ज की अदायगी में काम आया और बाकी एक जरूरतमंद को दे दिया गया। जिन वस्त्रों में आपने अंतिम साँस लिए उनमें अनेक पैवन्द लगे हुए थे। वह घर जिससे पूरी दुनिया में रोशनी फैली, वह जाहिरी तौर पर
अन्धेरों में डूबा हुआ था, क्योकि चिराग जलाने के लिए घर में तेल न था।
अनुकूल-प्रतिकूल प्रत्येक परिस्थिति में एक समान
परिस्थितियाँ बदल गई, लेकिन खुदा का पैगम्बर नहीं बदला। जीत हुई हो या हार, सत्ता प्राप्त हुई हो या इसके विपरीत की स्थिति हो, खुशहाली रही हो या गरीबी, प्रत्येक दशा में आप एक-से रहे, कभी आपके उच्च चरित्र में अन्तर न आया। ‘‘खुदा के मार्ग और उसके कानूनों की तरह खुदा के पैगम्बर में भी कभी कोई तब्दीली नहीं आया करती।’’
सत्यवादी से भी अधिक
एक कहावत है- ईमानदार व्यक्ति खुदा का है। मुहम्मद (सल्ल) तो ईमानदार से भी बढ़कर थे। उनके अंग-अंग में महानता रची-बसी थी। मानव-सहानुभूति और प्रेम उनकी आत्मा का संगीत था। मानव-सेवा, उसका उत्थान, उसकी आत्मा को विकसित करना, उसे शिक्षित करना सारांश यह कि मानव को मानव बनाना उनका मिशन था। उनका जीना, उनका मरना सब कुछ इसी एक लक्ष्य को अर्पित था। उनके आचार-विचार, वचन और कर्म का एक मात्र दिशा निर्देशक सिद्धान्त एवं प्रेरणा स्रोत मानवता की भलाई था। आप अत्यन्त विनीत, हर आडम्बर से मुक्त तथा एक आदर्श निस्स्वार्थी थे। आपने अपने लिए कौन-कौन सी उपाधियाँ चुनीं? केवल दो-अल्लाह का बन्दा और उसका पैगम्बर, और बन्दा पहले फिर पैगम्बर। आप (सल्ल.) वैसे ही पैगम्बर और संदेशवाहक थे, जैसे संसार के हर भाग में दूसरे बहुत-से पैगम्बर गुज़र चके हैं। जिनमें से कुछ को हम जानते है और बहुतों को नहीं। अगर इन सच्चाइयों में से किसी एक से भी ईमान उठ जाए तो आदमी मुसलमान नहीं रहता। यह तमाम मुसलमानों का बुनियादी अकीदा है। एक यूरोपीय विचारक का कथन है-‘‘ उस समय की परिस्थितियां तथा उनके अनुयायियों की उनके प्रति असीम श्रद्धा को देखते हुए पैगम्बर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने कभी भी मोजज़े (चमत्कार) दिखा सकने का दावा नहीं किया।’’ पैगम्बरे-इस्लाम से कई चमत्कार जाहिर हुए, लेकिन उन चमत्कारों का प्रयोजन धर्म प्रचार न था। उनका श्रेय आपने स्वयं न लेकर पूर्णतः अल्लाह को और उसके उन अलौकिक तरीकों को दिया जो मानव के लिए रहस्यमय हैं। आप स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि वे भी दूसरे इंसानों की तरह ही एक इंसान हैं। आप जमीन व आसमानों के खजानों के मालिक नहीं। आपने कभी यह दावा भी नहीं किया कि भविष्य के गर्भ में क्या कुछ रहस्य छुपे हुए हैं। यह सब कुछ उस काल में हुआ जब कि आश्चर्यजनक चमत्कार दिखाना साधू सन्तों के लिए मामूली बात समझी जाती थी और जबकि अरब हो या अन्य देश पूरा वातावरण गैबी और अलौकिक सिद्धियों के चक्कर में ग्रस्त था। आपने अपने अनुयायियों का ध्यान प्राकृति और उनके नियमों के अध्ययन की ओर फेर दिया। ताकि उनको समझें और अल्लाह की महानता का गुणगान करें।
कुरआन कहता है- ‘‘और हमने आकाशों व धरती को और जो कुछ उनके बीच है, कुछ खेल के तौर पर नहीं बनाया। हमने इन्हें बस हक के साथ (सोद्देश्य) पैदा किया, परन्तु इनमें अधिकतर लोग (इस बात को ) जानते नहीं।’’(कुरआन 44/38.39)
विज्ञान मुहम्मद (सल्ल.) की विरासत
यह जगत् न कोई भ्रम है और न उद्देश्य-रहित। बल्कि इसे सत्य और हक के साथ पैदा किया गया है। कुरआन की उन आयतों की संख्या जिनमें प्राकृति के सूक्ष्म निरीक्षण की दावत दी गई है, उन सब आयतों से कई गुना अधिक है जो नमाज, रोज़ा, हज आदि आदेशों से संबंधित हैं। इन आयतों का असर लेकर मुसलमानों ने प्राकृति का निकट से निरीक्षण करना आरम्भ किया। जिसने निरीक्षण और परीक्षण एवं प्रयोग के लिए ऐसी वैज्ञानिक मनोवृति को जन्म दिया, जिससे यूनानी भी अनभिज्ञ थे। मुस्लिम वनस्पति शास्त्री इब्ने-बेतार ने संसार के सभी भू-भागों से पौधे एकत्र करके वनस्पतिशास्त्र पर वह पुस्तक लिखी, जिसे मेयर ;डंलमतद्ध ने अपनी पुस्तक, श्ळमेबी कमत ठवजंदपांश् में ‘कड़े श्रम की पुरातन निधि’ की संज्ञा दी है। अल्बेरूनी ने चालीस वर्षों तक यात्रा करके खनिज पदार्थों के नमूने एकत्र किए तथा अनेक मुस्लिम खगोलशात्री 12 वर्षों से भी अधिक अवधि तक निरीक्षण और परीक्षण में लगे रहे, जबकि अरस्तू ने एक भी वैज्ञानिक परीक्षण किए बिना भौतिकशास्त्र पर कलम उठाई और भौतिकशास्त्र का इतिहास लिखते समय उसकी लापरवाही का यह हाल है कि उसने लिख दिया कि ‘इंसान के दांत जानवर से ज्यादा होते हैं’ लेकिन इसे सिद्ध करने के लिए कोई तकलीफ नहीं उठाई, हालाँकि यह कोई मुश्किल काम न था।
पाश्चात्य देशों पर मुस्लिमों का ऋण
शरीर रचनाशास्त्र के महान ज्ञाता गैलेन ने बताया है कि इंसान के निचले जबड़े में दो हड्डियाँ होती हैं, इस कथन को सदियों तक बिना चुनौती असंदिग्ध रूप से स्वीकार किया जाता रहा, यहाँ तक कि एक मुस्लिम विद्वान अब्दुल लतीफ ने एक मानवीय कंकाल का स्वयं निरीक्षण करके सही बात से दुनिया को अवगत कराया। इस प्रकार की अनेक घटनाओं को उद्धृत करते हुए राबर्ट ब्रीफ्फालट अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ीम उंापदह व िीनउंदपजल (मानवता का सर्जक) में अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त करता है-‘‘हमारे विज्ञान पर अरबों का एहसान केवल उनकी आश्चर्यजनक खोजों या क्रांतिकारी सिद्धांतों एवं परिकल्पनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि विज्ञान पर अरब सभ्यता का इससे कहीं अधिक उपकार है, और वह है स्वयं विज्ञान का अस्तित्व।’’ यही लेखक लिखता है-‘‘यूनानियों ने वैज्ञानिक कल्पनाओं को व्यवस्थित किया, उन्हें समान्य नियम का रूप दिया और उन्हें सिद्धांतबद्ध किया, लेकिन जहाँ तक खोजबीन करने के
धैर्यपूर्ण तरीकों को पता लगाने, निश्चयात्मक एवं स्वीकारात्मक तथ्यों को एकत्र करने, वैज्ञानिक अध्ययन के सूक्ष्म तरीके निर्धारित करने, व्यापक एवं दीर्घकालिक अवलोकन व निरीक्षण करने तथा परीक्षणात्मक अन्वेषण करने का प्रश्न है, ये सारी विशिष्टिताएँ यूनानी मिजाज़ के लिए बिल्कुल अजनबी थीं। जिसे आज विज्ञान कहते हैं, जो खोजबीन की नई विधियों, परीक्षण के तरीकों, अवलोकन व निरीक्षण की पद्धति, नाप-तौल के तरीकों तथा गणित के विकास के परिणामस्वरूप यूरोप में उभरा, उसके इस रूप से यूनानी बिल्कुल बेखबर थे। यूरोपीय जगत् को इन विधियों और इस वैज्ञानिक प्रवृति से अरबों ही ने परिचित कराया।’’
इस्लामः एक सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था
पैगम्बर मुहम्मद की शिक्षाओं का ही यह व्यावहारिक गुण है, जिसने वैज्ञानिक प्रवृत्ति को जन्म दिया। इन्हीं शिक्षाओं ने नित्य के काम-काज और उन कामों को भी जो सांसारिक काम कहलाते हैं आदर और पवित्रता प्रदान की। कुरआन कहता है कि इंसान को खुदा की इबादत के लिए पैदा किया गया है, लेकिन ‘इबादत’ (उपासना) की उसकी अपनी अलग परिभाषा है। खुदा की इबादत केवल पूजा-पाठ आदि तक सीमित नहीं, बल्कि हर वह कार्य जो अल्लाह के आदेशानुसार उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने तथा मानव-जाति की भलाई के लिए किया जाए इबादत के अन्तर्गत आता है। इस्लाम ने पूरे जीवन और उससे सम्बन्धित सारे मामलों को पावन एवं पवित्र घोषित किया है। शर्त यह है कि उसे ईमानदारी, न्याय और नेकनियत के साथ किया जाए। पवित्र और अपवित्र के बीच चले आ रहे अनुचित भेद को मिटा दिया। कुरआन कहता है कि अगर तुम पवित्र और स्वच्छ भोजन खाकर अल्लाह का आभार स्वीकार करो तो यह भी इबादत है। पैगम्बरे- इस्लाम ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को खाने का एक लुक्मा खिलाता है तो यह भी नेकी और भलाई का काम है और अल्लाह के यहाँ वह इसका अच्छा बदला पाएगा। पैगम्बर का एक और कथन है-‘‘अगर कोई व्यक्ति अपनी कामना और ख्वाहिश को पूरा करता है तो उसका भी उसे सवाब (पुण्य) मिलेगा। शर्त यह है कि वह इसके लिए वही तरीका अपनाए जो जायज़ हो।’’ एक साहब, जो आपकी बात सुन रहे थे, आश्चर्य से बोले-‘‘ऐ अल्लाह के पैगम्बर, वह तो केवल अपनी इच्छाओं और अपने मन की कामनाओं को पूरा करता है।’’ आपने उत्तर दिया - ‘‘यदि उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अवैध तरीकों को अपनाया होता तो उसे इसकी सजा मिलती, तो फिर जायज तरीका अपनाने पर उसे इनाम क्यों नहीं मिलना चाहिए?’’
व्यावहारिक शिक्षाएँ
धर्म की इस नई धारणा ने कि धर्म का विषय पूर्णतः अलौकिक जगत् के मामलों तक सीमित न रहना चाहिए, बल्कि इसे लौकिक जीवन के उत्थान पर भी ध्यान देना चाहिए, नीतिशास्त्र और आचारशास्त्र के नए मूल्यों एवं नई मान्यताओं को नई दिशा दी। इसने दैनिक जीवन में लोगों के सामान्य आपसी संबंधों पर स्थाई प्रभाव डाला। इसने जनता के लिए गहरी शक्ति का काम किया। इसके अतिरिक्त लोगों के अधिकारों और कर्तव्यों की धारणाओं को सुव्यवस्थित करना और इसका अनपढ़ लोगांे और बुद्धिमान दार्शनिकों के लिए समान रूप से ग्रहण करने और व्यवहार में लाने के योग्य होना पैगम्बरे - इस्लाम की शिक्षाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
सत्कर्म पर
आधारित शुद्ध
धारणा
यहाँ यह बात सर्तकता के साथ दिमाग में आ जानी चाहिए कि भले कामों पर जोर देने का अर्थ यह नहीं है कि इसके लिए धार्मिक आस्थाओं की पवित्रता एवं शुद्धता को कुर्बान किया गया है। ऐसी बहुत-सी विचार-
धाराएँ हैं, जिनमें यातो व्यावहारिकता के महत्व की बलि देकर आस्थाओं ही को सर्वोपरि माना गया है या फिर
धर्म की शुद्ध
धारणा एवं आस्था की परवाह न करके केवल कर्म को ही महत्व दिया गया है। इनके विपरीत इस्लाम सत्य, आस्था एवं सत्कर्म के नियम पर आधरित है। यहाँ साधन भी उतना ही महत्व रखते हैं जितना लक्ष्य। लक्ष्यों को भी वही महत्ता प्राप्त है जो साधनों को प्राप्त है। यह एक जैव इकाई की तरह है। इसके जीवन और विकास का रहस्य इनके आपस में जुड़े रहने में निहित है। अगर ये एक-दूसरे से अलग होते हैं तो ये क्षीण और विनष्ट होकर रहेंगे। इस्लाम में ईमान और अमल को अलग- अलग नहीं किया जा सकता। सत्य- ज्ञान को सत्कर्म में ढल जाना चाहिए, ताकि अच्छे फल प्राप्त हो सकें। ‘‘जो लाग ईमान रखते हैं और नेक अमल करते हैं, केवल वे ही स्वर्ग में जा सकेंगे।’’ यह बात कुरआन में कितनी बार दोहराई गई है? इस बात को पचास बार से कम नहीं दोहराया गया है। सोच विचार और ध्यान पर उभारा अवश्य गया है, लेकिन मात्र ध्यान और सोच-विचार ही लक्ष्य नहीं है। जो लोग केवल ईमान रखें, लेकिन उसके अनुसार कर्म न करें, उनका इस्लाम में कोई मुकाम नही है। जो ईमान तो रखें लेकिन कुकर्म भी करें, उनका ईमान क्षीण है। ईश्वरीय कानून-मात्र  विचार-पद्धति नहीं, बल्कि वह एक कर्म और प्रयास का कानून है। यह दीन (धर्म) लोगों के लिए ज्ञान से कर्म और कर्म से परितोष द्वारा स्थायी एवं शाश्वत उन्नति का मार्ग दिखलाता है

अल्लाह उस जैसा और कोई नहीं
लेकिन वह सच्चा ईमान क्या है, जिससे सत्कर्म का आविर्भाव होता है, जिसके फलस्वरूप पूर्ण परितोष प्राप्त होता है? इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत एकेश्वरवाद है। ‘पूज्य प्रभु (अल्लाह) बस एक ही है, उसके अतिरिक्त कोई पूज्य प्रभु (अल्लाह) नहीं’ इस्लाम का मूल मंत्र है। इस्लाम की तमाम शिक्षाएँ और कर्म इसी से जुड़े हुए हैं। वह (अल्लाह) केवल अपने अलौकिक व्यक्तित्व के कारण ही अद्वितीय नहीं बल्कि अपने दिव्य एवं अलौकिक गुणों एवं क्षमताओं की दृष्टि से भी अनन्य और बेजोड़ है। जहाँ तक ईश्वर (अल्लाह) के गुणों का संबंध है, दूसरी चीजों की तरह यहाँ भी इस्लाम के सिद्धांत अत्यन्त सुनहरे हैं। यह धारणा एक तरफ ईश्वर (अल्लाह) के गुणों से रहित होने की कल्पना को अस्वीकार करती है तो दूसरी तरफ इस्लाम उन चीजों को गलत ठहराता है जिनसे ईश्वर के उन गुणों का आभास होता है जो सर्वथा भैतिक गुण होते हैं। एक ओर कुरआन यह कहता है कि उस जैसा कोई नहीं, तो दूसरी ओर वह इस बात की भी पुष्टि करता है कि वह देखता, सुनता और जानता है। वह (अल्लाह) ऐसा सम्राट है जिससे तनिक भी भूल-चूक नहीं हो सकती। उसकी शक्ति का प्रभावशली जहाज न्याय एवं समानता के सागर पर तैरता है। वह अत्यन्त क्षमाशील एवं दयावान है, वह सबका रक्षक है। इस्लाम इसे स्वीकारात्मक रूप के प्रस्तुत करने पर ही बस नहीं करता , बल्कि वह समस्या के नकारात्मक पहलू को भी सामने लाता है, जो उसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण विशिष्टता है। उसके अतिरिक्त कोई नहीं जो सबका रक्षक हो। वह हर टूटे को जोड़ने वाला है, उसके अलावा कोई नहीं जो टूटे हुए को जोड़ सके। वही हर प्रकार की क्षतिपूर्ति करने वाला है। उसके सिवा कोई और उपास्य नहीं। वह हर प्रकार की अपेक्षाओं से परे है। उसी ने शरीर की रचना की, वही आत्माओं (रूहों) का स्रष्टा है। वही न्याय (कयामत) के दिन का मालिक है। सारांश यह कि कुरआन के अनुसार सारे श्रेष्ठ एवं महान गुण उसमें पाए जाते हैं।
ब्रह्मम्माण्ड में मनुष्य की हैसियत
ब्रह्मांड में मनुष्य की जो हैसियत है, उसके विषय में कुरआन कहता है- ‘‘वह अल्लाह ही है जिसने समुद्र को तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया है ताकि उसके आदेश से नौकाएँ उसमें चलें, और ताकि तुम उसका उदार अनुग्रह तलाश करो और इसलिए कि तुम कृतज्ञता दिखाओ। जो चीजें आकाशों में हैं और जो धरती में हैं, उस (अल्लाह) ने उन सबको अपनी ओर से तुम्हारे काम में लगा रखा है।’’ (कुरआन, 45/12.13) लेकिन खुदा के संबंध में कुरआन कहता है-‘‘ऐ लोगो, खुदा ने तुमको उत्कृष्ट क्षमताएँ प्रदान की हैं। उसने जीवन बनाया और मृत्यु बनाई, ताकि तुम्हारी परीक्षा की जा सके कि कौन सुकर्म करता है और कौन सही रास्ते से भटकता है।’’ इसके बावजूद कि इंसान एक सीमा तक अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र है, वह विशेष वातावरण और परिस्थतियों तथा क्षमताओं के बीच घिरा हुआ भी है। इंसान अपना जीवन उन निश्चित सीमाओं के अन्दर व्यतीत करने के लिए बाध्य है, जिन पर उसका अपना कोई अधिकार नहीं है। इस संबंध में इस्लाम के अनुसार खुदा कहता है कि मैं अपनी इच्छा के अनुसार इंसान को उन परिस्थितियों में पैदा करता हूँ, जिनको मैं उचित समझता हूँ। असीम ब्रह्मांड की स्कीमों को नश्वर मानव पूरी तरह नही समझ सकता। लेकिन मैं निश्चय ही सुख में और दुख में, तन्दुरुस्ती और बीमारी में, उन्नति और अवनति में तुम्हारी परीक्षा करूँगा। मेरी परीक्षा के तरीके हर मनुष्य और हर समय और युग के लिए विभिन्न हो सकते हैं। अतः मुसीबत में निराश न हो और नाजायज़ तरीकों व साधनों का सहारा न लो। यह तो गुजर जानेवाली स्थिति है। खुशहाली में खुदा को भूल न जाओ। खुदा के उपहार तो तुम्हें मात्र अमानत के रूप में मिले हैं। तुम हर समय व हर क्षण परीक्षा में हो। जीवन के इस चक्र व प्रणाली के संबंध में तुम्हारा काम यह नही कि किसी दुविधा में पड़ो, बल्कि तुम्हारा कर्तव्य तो यह है कि, मरते दम तक कर्म करते रहो। यदि तुमको जीवन मिला है तो खुदा की इच्छा के अनुसार जियो और मरते हो तो तुम्हारा यह मरना खुदा की राह में हो। तुम इसको नियति कह सकते हो, लेकिन इस प्रकार की नियति तो ऐसी शक्ति और ऐसे प्राणदायक सतत प्रयास का नाम है जो तुम्हें सदैव सतर्क रखता है। इस संसार के बाद स्थायी जीवन भी है जो सदैव बाकी रहने वाला है। इस जीवन के बाद आनेवाला जीवन वह द्वार है जिसके खुलने पर जीवन के सभी तथ्य प्रकट हो जाएँगे। इस जीवन का हर कार्य, चाहे वह कितना ही मामूली क्यों न हो, इसका प्रभाव सदा बाकी रहने वाला होता है। वह ठीक तौर पर अभिलिखित या अंकित हो जाता है।
सावधान ! यह जीवन परलोक की तैयारी है
खुदा की कुछ कार्य-पद्धति को तो तुम समझते हो लेकिन बहुत-सी बातें तुम्हारी समझ से दूर और नज़र से ओझल हैं। खुद तुम में जो चीजें छिपी हुई हैं और संसार की जो चीजें तुमसे छिपी हुई हैं वे दूसरी दुनिया में बिल्कुल तुम्हारे सामने खोल दी जाएँगी। सदाचारी और नेक लोगों को खुदा का वह वरदान प्राप्त होगा जिसको न आँख ने देखा, न कान ने सुना और न मन कभी उसकी कल्पना कर सका। उसके प्रसाद और उसके वरदान क्रमशः बढ़ते जाएँगे और उसको अधिकाधिक उन्नति प्राप्त होती रहेगी। लेकिन जिन्होंने इस जीवन में मिले अवसर को खेा दिया वे उस अनिवार्य कानून की पकड़ में आ जाएँगे, जिसके अन्तर्गत मनुष्य को अपने करतूतों का मजा चखना पढ़ेगा। उनको उन आत्मिक रोगों के कारण, जिनमें उन्होंने खुद अपने आपको ग्रस्त किया होगा, उनको इलाज के एक मरहले से गुज़रना होगा। सावधन हो जाओ। बड़ी कठोर व भयानक सज़ा है। शारीरिक पीड़ा तो ऐसी यातना है, उसको तुम किसी तरह झेल भी सकते हो, लेकिन आत्मिक पीड़ा तो जहन्नम (नरक) है जो तुम्हारे लिए असहनीय होगी। अतः इसी जीवन में अपनी उन मनोवृत्तियों का मुकाबला करे, जिनका झुकाव गुनाह की ओर रहता है और वे तुम्हें पापाचार की ओर प्रेरित करती हैं। तुम उस अवस्था को प्राप्त करो, जबकि अन्र्तात्मा जागृत हो जाए और महान नैतिक गुण प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठे और अवज्ञा के विरुद्ध विद्रोह करें। यह तुम्हें आत्मिक शान्ति की आखरी मंजि़ल तक पहुँचाएंगी। यानी अल्लाह की प्रसन्नता (रज़ा) हासिल करने की मंजि़ल तक। और केवल अल्लाह की प्रसन्नता (रज़ा) ही में आत्मा का अपना आनन्द भी निहित है। इस स्थिति में आत्मा के विचलित होने की संभावना न होगी, संघर्ष का दौर गुजर चुका होगा, सत्य ही विजयी होता है और झूठ अपना हथियार डाल देता है। उस समय सारी उलझनें दूर हो जाएँगी। तुम्हारा मन दुविधा में नहीं रहेगा, तुम्हारा व्यक्तित्व अल्लाह और उसकी इच्छाओं के प्रति सम्पूर्ण भाव के साथ पूर्णतः संगठित व एकत्रित हो जाएगा। तब सारी छुपी हुई शक्तिया एवं क्षमताएँ पूर्णतः स्वतंत्र हो जाएँगी और आत्मा को पूर्ण शान्ति प्राप्त होगी, तब खुदा तुम से कहेगा-‘‘ऐ सन्तुष्ट आत्मा, तू अपने रब से पूरे तौर पर राजी हुई, तू अब अपने रब की ओर लौट चल, तू उससे राज़ी है और वह तुझसे राज़ी है। अब तू मेरे (प्रिय) बन्दों में शामिल हो जा और मेरी जन्नत में दाखिल हो जा।’’ (कुरआन, 89/27.30)
मनुष्य का परम लक्ष्य
यह है इस्लाम की सृष्टि में मनुष्य का परम लक्ष्य,  कि एक ओर तो वह इस जगत् को वशीभूत करने की कोशिश में लगे और दूसरी ओर उसकी आत्मा अल्लाह की प्रसन्नता (रज़ा) में चैन तलाश करे। केवल खुदा ही उससे राज़ी न हो, बल्कि वह भी खुदा से राज़ी और सन्तुष्ट हो। इसके फलस्वरूप उसको मिलेगा चैन और पूर्ण चैन, परितोष और पूर्ण परितोष, शान्ति और पूर्ण शान्ति। इस अवस्था में खुदा का प्रेम उसका आहार बन जाता है और वह जीवन-स्रोत से जी भर पीकर अपनी प्यास को बुझाता है। फिर न तो दुख और निराशा उसको पराजित एवं वशीभूत कर पाती है और न सफलताओं में वह इतराता और आपे से बाहर होता है। थामस कारलायल इस जीवन-दर्शन से प्रभावित होकर लिखता है- ‘‘और फिर इस्लाम की भी यही माँग है- हमें अपने को अल्लाह के प्रति समर्पित कर देना चाहिए, हमारी सारी शक्ति उसके प्रति समर्पण में निहित है। वह हमारे साथ जो कुछ करता है, हमें जो कुछ भी भेजता है, चाहे वह मौत ही क्यों न हो या उससे भी बुरी कोई चीज, वह वस्तुतः हमारे भले की और हमारे लिए उत्तम ही होगी। इस प्रकार हम खुद को खुदा की प्रसन्नता (रज़ा) के प्रति समर्पित कर देते हैं।’’ लेखक आगे चलकर गोयटे का एक प्रश्न उद्धृत करता है, ‘‘गोयटे पूछता है, यदि यही इस्लाम है तो क्या हम सब इस्लामी जीवन व्यतीत नहीं कर रहे हैं?’’ इसके उत्तर में कारलायल लिखता है-‘‘ हाँ, हममें से वे सब जो नैतिक व सदाचारी जीवन व्यतीत करते हैं वे सभी इस्लाम में ही जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह तो अन्ततः वह सर्वोच्च ज्ञान एवं प्रज्ञा है जो आकाश से इस धरती पर उतारी गयी है।’’
हजरत मुहम्मद (सल्ल.) प्रसिद्ध व्यक्तित्व
यदि उद्देश्य की महानता, साधनों का अभाव और शानदार परिणाम- मानवीय बुद्धिमत्ता और विवेक की तीन कसौटियाँ हैं, तो आधुनिक इतिहास में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के मुकाबले में कौन आ सकेगा? विश्व के महानतम एवं प्रसिद्धतम व्यक्तियों ने शास्त्र,कानून और शसन के मैदान में कारनामे अंजाम दिए। उन्होंने भौतिक शक्तियों को जन्म दिया, जो प्रायः उनकी आँखों के सामने ही बिखर गईं। लकिन हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने न केवल फौज, कानून, शासन और राज्य को अस्तित्व प्रदान किया, बल्कि तत्कालीन विश्व की एक तिहाई जनसंख्या के मन को भी छू लिया। साथ ही, आप (सल्ल.) ने कर्मकांडों, वादों,    धर्मों, पंथों, विचारों, आस्थाओं इत्यादि में अमूल परिवर्तन कर दिया। इस एक मात्र पुस्तक (पवित्र कुरआन) ने, जिसका एक-एक अक्षर कानूनी हैसियत प्राप्त कर चुका है, हर भाषा, रंग, नस्ल और प्रजाति के लोगों को देखते-देखते एकत्रित कर दिया, जिससे एक अभूतपूर्व अखिल विश्व आध्यात्मिक नागरिकता का निर्माण हुआ। हजरत मुहम्मद (सल्ल.) द्वारा एकेश्वरवाद की चमत्कारिक घोषणा के साथ ही विभिन्न काल्पनिक तथा मनघड़न्त आस्थाओं, मतों, पंथों, धार्मिक मान्यताओं, अंधविश्वासों एवं रीति-रिवाजों की जड़ें कट गईं। उनकी अनन्त उपासनाएँ, ईश्वर से उनकी आध्यात्मिक वार्ताएँ, लौकिक और पारलौकिक जीवन की सफलता- ये चीजें न केवल हर प्रकार के पाखण्डों का खण्डन करती हैं, बल्कि लोगों के अन्दर एक दृढ़ विश्वास भी पैदा करती हैं, उन्हें एक शाश्वत धार्मिक सिद्धान्त कायम करने की शक्ति भी प्रदान करती हैं। यह सिद्धान्त द्विपक्षीय है। एक पक्ष है ‘एकेश्वरवाद’ का और दूसरा है ‘ईश्वर के निराकार’ होने का। पहला पक्ष बताता है कि ‘ईश्वर क्या है?’ और दूसरा पक्ष बताता है कि ‘ईश्वर क्या नही है?’ दार्शनिक ,वक्ता, धर्मप्रचारक,     विधि-निर्माता, योद्धा, विचारों को जीतनेवाला, युक्तिसंगत आस्थाओं के पुनरोद्धारक, निराकार (बिना किसी प्रतिमा) की उपासना, बीस बड़ी सल्तनतों और एक आध्यात्मिक सत्ता के निर्माता एवं प्रतिष्ठाता वही हजरत मुहम्मद (सल्ल.) हैं, जिनके द्वारा स्थापित मानदण्डों से मानव-चरित्र की ऊँचाई और महानता को मापा जा सकता है। यहाँ हम यह पूछ सकते हैं कि क्या हजरत मुहम्मद (सल्ल.) से बढ़कर भी कोई महामानव है? ’’
लेमराइटन, हिस्टोरी डी ला तुर्की, पेरिस, 1854,भाग.2 पृष्ठ 276 -277


मुहम्मद सल्ल. की जीवन व्यवस्था और आर्थिक जीवन
धन जीवन की रीढ़ की हड्डी और उसका आधार है जिसके द्वारा हज़रत मुहम्मद सल्ल. की शरीअत का उद्देश्य एक संतुलित समाज की स्थापना है जिसमें सामाजिक न्याय का बोल बाला हो जो अपने सभी सदस्यों के लिये आदरणीय जीवन का प्रबंध करता है, ऐसे भ्रष्टाचार और शोषण मुक्त समाज की स्थापना जिसमें धन का आना शुभ और जाना अशुभ न माना जाता हो जहाॅ येनकेन प्रकारेण धन इकट्ठा करना ही जीवन का मुख्य ध्येय न हो।
इस्लाम की दृष्टि में धन उन ज़रूरतों में से एक ज़रूरत है जिस से व्यक्ति या समूह बेनियाज़ नहीं हो सकते तो अल्लाह तआला ने उसके कमाने और खर्च करने के तरीक़ों से संबंधित कुछ नियम बनाये हैं, साथ ही साथ उसमें अढ़ाई प्रतिशत / चालीस रूपये में एक रूपया (2.5 प्रतिशत) ज़कात अनिवार्य किया है जो धन्वानों के मूलधनों पर एक साल बीत जाने के बाद लिया जायेगा और निर्धनों और गरीबों में बांट दिया जायेगा, यह
निर्धनों के अधिकारों में से एक अधिकार है जिसे रोक लेना हराम (वर्जित) है।
दूसरों के धनों और सम्पत्तियों से छेड-छाड़ करने को वर्जित ठहराने के बारे में शरई हुक्म मौजूद हैं, अल्लाह तआला का फरमान है: ‘‘एक दूसरे का माल अवैध रूप से न खाया करो।’’ (सूरतुल बक़रा:188)
इस्लाम ने अच्छा जीवन मुहैया कराने के लिये, निम्नलिखित उपाय किये हैंः
1- व्याज को हराम करार दिया है, अल्लाह तआला का फरमान है: ‘‘ ऐ ईमान वालो! अल्लाह तआला से डरो और जो व्याज बाक़ी रह गया है वह छोड़ दो यदि तुम सच्चे ईमान वाले हो, और और ऐसा नहीं करते तो अल्लाह तआला से और उसके रसूल से लड़ने के लिये तैयार हो जाओ, हाँ यदि तौबा कर लो तो तुम्हारा मूल धन तुम्हारा ही है, न तुम ज़ुल्म करो और न तुम पर ज़ुल्म किया जायेगा।’’ (सूरतुल बक़रा:278)
2- इस्लाम ने क़जऱ् (ऋण) देने पर उभारा है और उसकी प्रेरणा दी है ताकि सूद और उसके रास्तों को बंद किया जा सके, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः ‘‘जिसने किसी मुसलमान को एक दिर्हम दो बार कजऱ् दिया तो उसके लिये उन दोनों (कजऱ्ो) को एक बार सद्क़ा करने के बराबर अज्र व सवाब है।’’ (मुसनद 8/443 हदीस नं-ः 5030)
और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है: ‘‘जिसने किसी मुसलमान की परेशानी (संकट) को दूर कर दिया तो उसके बदले अल्लाह तआला उसकी क़यामत के दिन की परेशानियों में से एक परेशानी को दूर कर देगा।’’ (सही मुस्लिम हदीस नं-ः58)
(नोटः-कर्ज़ हमेशा किसी मानक वस्तु को आधार बनाकर देना चाहिये जैसे ज़कात देते वक्त सोने चाॅदी के मानक से जोड़ा गया है। क्योंकी नोट या करेंसी की खुद की कोई कीमत नही होती हमारा दीनी फरीज़ा है कि जितना कर्ज़ हमने लिया है उतना ही हम वापस करें, नोट केा आधार मानकर लिये गये कर्ज़ में हम साल गुज़रने पर कम कीमत वापस करते हैं)
  इस्लाम ने तंगी वाले को छूट और मोहलत देने, और उसे तंग न करने का संदेश दिया है और यह हुक्म मुस्तहब (ऐच्छिक) है, अनिवार्य नहीं है - यह उस व्यक्ति के लिय है जो ऋण वापस करने का पूरा प्रयास कर रहा हो लेकिन टाल-मटोल और खिलवाड़ करने वालांे के लिये यह नहीं है- अल्लाह तआला का फरमान है: ‘‘और यदि तंगी वाला हो तो उसे आसानी तक छूट देनी चाहिये।’’ (सूरतुल बक़रा:280)
और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘जिसने किसी तंगी वाले को छूट और मोहलत दिया उसके लिए हर दिन के बदले सद्क़ा होगा, और जिसने उसे क़जऱ् चुकाने की मुद्दत आ जाने के बाद मोहलत दिया उसके लिए उसी के समान हर दिन सद्क़ा है।’’ (सुनन इब्ने माजा  हदीस नं-ः2418)
  कर्ज़दार पर कर्ज़ चुकाना कठिन हो रहा हो तो इस्लाम ने कर्ज़ देने वाले को कर्ज़ माफ कर देने पर उभारा है और इसकी प्रतिष्ठा को स्पष्ट किया है, अल्लाह तआला ने फरमाया: ‘‘और दान करो तो तुम्हारे लिये बहुत ही अच्छा है।’’ (सूरतुल बक़रा:280)
और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि ‘‘जो इस बात से प्रसन्न हो कि अल्लाह तआला उसे आखिरत (परलोक) की कठिनाईयों से छुटकारा दे दे तो उसे चाहिए कि वह तंगी वाले को छूट व मोहलत दे या उस से ऋण (कजऱ्) को समाप्त कर दे।’’ (सुनन बैहक़ी 5/356 हदीस नं-ः10756)
3- इस्लाम ने लालच और ज़खीरा अंदोज़ी को हराम ठहराया है चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, क्योंकि ज़खीरा करने वाला (लोगों के इस्तेमाल की वस्तुओं को इकट्ठा करने वाला) लोगों  के खानपान और ज़रूरत के सामान को रोक लेता है यहाँ तक कि वह सामान मंडी में कम हो जाता है, फिर वह मनपसंद भाव लेकर बेचता है, इस से समाज के धनवान एंव निर्धन सब को नुक़सान पहुँचता है, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘जिसने माल को ज़खीरा किया वह पापी है।’’ (सही मुस्लिम 3/1227 हदीस नं-ः1605)
इमाम अबू हनीफा के शिष्य अबू यूसुफ कहते हैं: ‘‘हर वह वस्तु जिसका रोकना लोगों के लिए हानिकारक हो वह अहितकार (ज़खीरा अन्दोज़ी) है, यदि वह सोना चाँदी (आजकल नोट और सिक्के इसमें शामिल हैं) ही क्यों न हो, और जिसने ज़खीरा किया उसने अपनी मिलकियत में गलत हक़ का इस्तेमाल किया। इसलिए कि ज़खीरा करने से रोकने का उद्देश्य लागों से हानि को रोकना है और लागों की विभिन्न ज़रूरतें होती हैं और ज़खीरा अन्दोज़ी से लोग कष्ट और तंगी में पड़ जाते हैं।
और हाकिम (सरकार/खलीफा) का यह अधिकार है कि, सामान इकट्ठा करके रखने वाले को ऐसे मुनासिब फायदे में बेचने पर मजबूर करे जिस में न बेचने वाले का हानि हो न ही खरीदने वाले केा। यदि सामान इकट्ठा करके रखने वाला इन्कार कर देता है तो हाकिम (सरकार/खलीफा) को यह अधिकार है कि वह अपना शासन लागू कर के उसे मुनासिब दाम में बेचे ताकि उसके इस कृत्य के सबब सामान इकट्ठा करके रखने और लोगों की आवश्यकताओं से लाभ कमाने की इच्छा रखने वाले का रास्त बंद हो जाये।
4- पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘वह मांस और खून जिस का पोषण अवैध धन से हुआ है वह स्वर्ग में नहीं जा सकता, वह नरक का अधिक हक़दार है।’’
5- इस्लाम ने धन का खज़ाना बनाकर रखने और उसमें अल्लाह के उन हुक़ूक़ को जिन से मनुष्य और समाज का भला और लाभ होता है, न निकालने को हराम क़रार दिया है इसलिए कि माल के इस्तेमाल का उचित ढंग यह है कि सभी लोगों के हाथों में पहुँचता रहे, ताकि इस से आर्थिक व्यवस्था चलती रहे, जिस से समाज के सभी लोग लाभान्वित होते है विशेषकर जब समाज को ज़रूरत हो, अल्लाह तआला का फरमान है:  ‘‘और जो लोग सोने चाँदी (नोट और सिक्के) का खज़ाना रखते हैं और उसे अल्लाह के मार्ग में खर्च नहीं करते उन्हें कष्टदायक सज़ा की सूचना पहुँचा दीजिए।’’ (सूरः त्तौबा:34)
इस्लाम ने जिस तरह निजी मिलकियत का सम्मान किया है उसी तरह उसमें हुक़ूक़ और वाजिबात (अधिकार और कर्तव्य) निर्धारित किए हैं, इन वाजिबात में से कुछ ऐसे हैं जो स्वयं मालिक ही के लिए हैं जैसे अपने ऊपर खर्च करना और रिश्तेदारों में से जिनके खर्च का वह जि़म्मेदार है, उन पर खर्च करना ताकि वह दूसरों के ज़रूरतमंद न रहें। उन में से कुछ समाज के खास लोगों के लिए अनिवार्य है जैसे ज़कात, दान, खैरात इत्यादि। तथा उनमें से कुछ समाज के लिए अनिवार्य है, जैसे विद्यालय, स्वास्थ केन्द्र, कॅुये, अनाथालय, मुसाफिरखाना और मस्जिदें बनाने और हर वह चीज़ जिससे ज़रूरत के वक़्त समाज को लाभ पहुँचे, उसमें माल खर्च करना। और इस कार्य के द्वारा इस्लाम धन को समाज के कुछ विशिष्ट लोगों के हाथों में सिमटने से रोकना चाहता है।
6- नाप और तौल में डंडी मारने को इस्लाम ने हराम ठहराया है इसलिये कि यह एक प्रकार की चोरी, छीना झपटी, खियानत और धोखा-धड़ी है, अल्लाह तआला फरमाता है: ‘‘बड़ी खराबी है नाप तौल में कमी करने वालों की, कि जब लोगों से नाप कर लेते है ंतो पूरा पूरा लेते हैं और जब उन्हें नाप कर या तौल कर देते है ंतो कम देते हैं।’’ (सूरतुल मुतफ्फिेफीन:1-3)
7- इस्लाम ने मनुष्यों के सामान्य लाभ और मुनाफे की चीज़ों पर क़ब्ज़ा जमाने और लोगों को उस से लाभ उठाने से रोकने को हराम क़रार दिया है, जैसे आग, पानी और चारागाह जो किसी व्यक्ति की सम्पत्ति न हो, जैसा कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है: ‘‘तीन प्रकार के व्यक्ति ऐसे हैं कि परलोक के दिन अल्लाह उनसे बात करेगा न ही उनकी तरफ देखेगा: एक व्यक्ति वह है जिसने किसी समाग्री के बारे में क़सम खायी कि जितने में वह दे रहा उस से अधिक देकर लिया है हालांकि वह झूठा है, एक व्यक्ति वह है जिसने अस्र के बाद अपने मुसलमान भाई का माल लेने के लिए झूठी क़सम खाई और एक व्यक्ति वह है जिस ने ज़रूरत से अधिक (फालतू) पानी को रोक लिया, अल्लाह तआला कहेगा: आज मैं तुझ से अपना फज़्ल (अनुकम्पा) रोक लूँगा जिस तरह तुम ने उस अतिरिक्त पानी को रोक दिया था जो तुम्हारे हाथों की कमाई नहीं थी।’’ (सही बुखारी हदीस नं-ः2240)
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि ‘‘मुसलमान तीन चीज़ों में आपस में साझीदार हैं: चारा, पानी और आग।’’ (मुस्नद अहमद हदीस नं-ः23132)
8- इस्लाम के अन्दर मीरास का क़ानून है, माल के मालिक से दूरी और क़रीबी के हिसाब से विरासत (तरका) को वारिसों के बीच बांटा जाता है -और इस विरासत के धन के बॅटवारे में किसी को अपनी व्यक्तिगत इच्छा और मनमानी चलाने का
अधिकार नहीं है- और इस क़ानून की अच्छाईयों में से यह है कि धन चाहे जितना ज़्यादा हो यह सब को छोटी-छोटी मिलकियतों में बांट देता है और इस धन को कुछ विशिष्ट लोगों के हाथों में सिमटने को असम्भव बना देता है, रसलू सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि ‘‘अल्लाह तआला ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया है इसलिये किसी वारिस के लिये वसीयत नहीं है।’’ (सुनन अबू दाऊद हदीस नं-ः2870)
9- वक़्फ का क़ानून: इस्लाम ने वक़्फ करने पर लोगों को उभारा और उसकी प्रेरणा दी है। वक़्फ दो प्रकार का है:
खास वक़्फ: आदमी अपने घर और परिवार वालों के लिए उन्हें भूख, गरीबी और भीख मांगने से बचाने के उद्देश्य से
धन वक़्फ करे, और इस वक़्फ के शुद्ध होने की शर्ताें में से एक शर्त यह है कि वक़्फ करने वाले के परिवार के खत्म हो जाने के बाद उसका लाभ पुण्य के कार्यों में लगाया जाएगा।
आम वक़्फ: आदमी पुण्य के कार्यों में अपना धन वक़्फ करे जिसका उद्देश्य उस वक़्फ या उसके लाभ को भलाई और नेकी के कामों पर खर्च करना हो, जैसे: अस्पताल, स्कूल, रास्ते, पुस्तकालय, मसजिद, और अनाथों, लावारिसों और कमज़ोरांे की देखभाल के केंद्र बनाना, इसी तरह हर वह काम जिसका समाज को लाभ पहुँचे। रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं: ‘‘जब इंसान मर जाता है तो उसके सारे नेकी के काम बंद हो जाते हैं सिवाय तीन चीज़ों के, सद्क़ा जारिया (बाक़ी रहने वाला दान ), लाभदायक ज्ञान और नेक लड़का जो माता पिता के लिए दुआ करे।’’ (सही मुस्लिम हदीस नं-ः1631)
10- वसीयत का नियम: इस्लाम ने मुसलमान के लिए यह वैध क़रार दिया है कि वह अपने माल में से कुछ माल मरने के बाद पुण्य कार्य और भलाई के कामों में खर्च करने की वसीयत कर दे। लेकिन इस्लाम ने तिहाई माल से अधिक वसीयत करने की अनुमति नहीं दी है ताकि इस से वारिसों को हानि न पहुँचे। आमिर बिन सअद रजि़यल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैं मक्का में बीमार था, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मेरा हाल पता करने के लिए आये, मैं ने आप से कहा कि क्या मैं अपने सारे माल की वसीयत कर सकता हूँ? आप ने कहा नहीं, तो मैं ने कहा तो फिर आधे माल की? आप ने फरमाया नहीं, मैं ने कहा तो फिर एक तिहाई की? आप ने फरमाया: एक तिहाई की कर सकते हो और एक तिहाई भी अधिक है, तुम्हारा अपने वारिसों को मालदार छोड़ना इस बात से बेहतर है कि तुम उन्हें मोहताज छोड़ दो वो लोगों के सामने हाथ फैलाते फिरें, और तुम कितना भी खर्च कर डालो वह सद्क़ा है यहाँ तक कि अपनी बीवी के मुँह में जो लुक़मा डालते हो (वह भी सद्क़ा है) और शायद अल्लाह तुम्हारी बीमारी को उठा ले और कुछ लोग तुम से लाभ उठायें और दूसरे लोग नुक़सान।’’ (सही बुखारी 1/435 हदीस नं-ः1233)
11- उन सभी चीज़ों को हराम क़रार दिया जो अल्लाह तआला के इस कथन: ‘‘ऐ ईमान वालो! तुम आपस में एक दूसरे का माल अवैध तरीक़े से न खाओ।’’ (सूरतुन्निसा:29) के अन्तरगत आती हैं। विभिन्न प्रकार की छीना झपटी से रोका है, इसलिए कि इसमें लोगों पर अत्याचार होता है और समाज में बिगाड़ पैदा होता है। रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है: ‘‘जिसने क़सम खा कर अपने मुसलमान भाई का हक़ छीन लिया तो अल्लाह तआला ने उसके लिए नरक अनिवार्य कर दिया है और उस पर स्वर्ग हराम कर दिया है।’’ एक आदमी ने कहा कि ऐ अल्लाह के पैग़म्बर! अगर छोटी ही चीज़ क्यों न हो? आप ने कहा कि: ‘‘चाहे पीलू की एक डाली ही क्यों न हो।’’ (सही मुस्लिम 1/122 हदीस नं-ः137)
और चोरी से रोका है, इसलिए कि यह लोगों के धनों पर अवैध क़ब्ज़ा है। धोखा और फरेब से रोका है, रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया ‘‘जिसने हम पर हथियार उठाया वह हम में से नहीं और जिस ने हमें धोखा दिया तो वह हम में से नहीं।’’ (सहीह मुस्लिम 1/99 हदीस नं-ः101 )
घूस लेने से रोका है, जैसा कि अल्लाह का फरमान है:‘‘एक दूसरे का माल अवैध तरीक़े से न खाओ, अैर न ही हाकिमों को घूस दे कर किसी का कुछ माल अत्याचारी से हथिया लो, हालांकि तुम जानते हो।’’ (सूरतुल बक़रा:188) तथा रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘फैसला (श्रनकहमउमदज)में घूस देने और लेने वाले दोनों पर अल्लाह की फटकार है।’’
‘राशी’ घूस देने वाला ‘‘मुर्तशी’ घूस लेने वाला और एक हदीस में ‘राईश’ का शब्द आया है जिसका अर्थ दलाल है। घूस देने वाले पर फटकार इस लिये है कि वह इस हानिकारक चीज़ को समाज में फैलाने में सहायता कर रहा है और और वह घूस न देता तो घूसखोर न पाया जाता, और घूस लेने वाले पर फटकार इस लिये है कि उस ने घूस देने वाले को अवैध रूप से उसका धन लेकर उसे हानि पहुँचाया है और उसने अमानत में खियानत की है, इसलिये कि वह कार्य जो उस पर बिना माल लिये उसे करना अनिवार्य था उसे पैसे के बदले में किया है, इसके साथ ही घूस देने वाले के मुखालिफ को भी हानि हो सकता है। दलाल ने घूस देने और लेने वाले दोनों से अवैध माल लिया है और इस बुराई के फैलाव का प्रोत्साहन किया है।
  इस्लाम ने मनुष्य के लिये अपने भाई के क्रय पर क्रय करने को हराम क़रार दिया है, हाँ और वह उसे अनुमति दे दे तो कोई बात नहीं, इसलिये कि इस से समाज में दुश्मनी पैदा होती है, रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि ‘‘आदमी अपने भाई के क्रय-विक्रय पर क्रय-विक्रय न करे और अपने भाई के विवाह के संदेश पर संदेश न भेजे, हाँ और उसका भाई अनुमति दे दे तो कोई बात नहीं।’’ (सही मुस्लिम)